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पहला भाग : बयान - 6

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बहुत-सी तकलीफें उठाकर महाराज सुरेंद्रसिंह और वीरेंद्रसिंह तथा इन्हीं की बदौलत चंद्रकांता, चपला, चंपा, तेजसिंह और देवीसिंह वगैरह ने थोड़े दिन खूब सुख लूटा मगर अब वह जमाना न रहा। सच है, सुख और दुख का पहरा बदलता रहता है। खुशी के दिन बात की बात में निकल गये कुछ मालूम न पड़ा, यहां तक कि मुझे भी कोई बात उन लोगों की लिखने लायक न मिली, लेकिन अब उन लोगों से मुसीबत की घड़ी काटे नहीं कटती। कौन जानता था कि गया-गुजरा शिवदत्त फिर बला की तरह निकल आवेगा किसे खबर थी कि बेचारी चंद्रकांता की गोद से पले-पलाए दोनों होनहार लड़के यों अलग कर दिए जाएंगे कौन साफ कह सकता था कि इन लोगों की वंशावली और राज्य में जितनी तरक्की होगी, यकायक उतनी ही ज्यादे आफतें आ पड़ेंगी खैर खुशी के दिन तो उन्होंने काटे, अब मुसीबत की घड़ी कौन झेले हां बेचारे जगन्नाथ ज्योतिषी ने इतना जरूर कह दिया था कि वीरेंद्रसिंह के राज्य और वंश की बहुत कुछ तरक्की होगी, मगर मुसीबत को लिए हुए। खैर आगे जो कुछ होगा देखा जाएगा पर इस समय तो सबके सब तरद्दुद में पड़े हैं। देखिए अपने एकांत के कमरे में महाराज सुरेंद्रसिंह कैसी चिंता में बैठे हैं और बाईं तरफ गद्दी का कोना दबाए राजा वीरेंद्रसिंह अपने सामने बैठे हुए जीतसिंह की सूरत किस बेचैनी से देख रहे हैं। दोनों बाप-बेटा अर्थात देवीसिंह और तारासिंह अपने पास ऊपर के दर्जे पर बैठे हुए बुजुर्ग और गुरु के समान जीतसिंह की तरफ झुके हुए इस उम्मीद में बैठे हैं कि देखें अब आखिर हुक्म क्या होता है। सिवाय इन लोगों के इस कमरे में और कोई भी नहीं है, एकदम सन्नाटा छाया हुआ है। न मालूम इसके पहले क्या-क्या बातें हो चुकी हैं मगर इस वक्त तो महाराज सुरेंद्रसिंह ने इस सन्नाटे को सिर्फ इतना ही कह के तोड़ा, ''खैर चंपा और चपला की भी बात मान लेनी चाहिए।''

जीत - जो मर्जी, मगर देवीसिंह के लिए क्या हुक्म होता है

सुरेंद्र - और तो कुछ नहीं सिर्फ इतना ही खयाल है कि चुनार की हिफाजत ऐसे वक्त क्योंकर होगी

जीत - मैं समझता हूं कि यहां की हिफाजत के लिए तारा बहुत है और फिर वक्त पड़ने पर इस बुढ़ौती में भी मैं कुछ कर गुजरूंगा।

सुरेंद्र - (कुछ मुस्कराकर और उम्मीद भरी निगाहों से जीतसिंह की तरफ देखकर) खैर, जो मुनासिब समझो।

जीत - (देवीसिंह से) लीजिए साहब, अब आपको भी पुरानी कसर निकालने का मौका दिया जाता है, देखें आप क्या करते हैं। ईश्वर इस मुस्तैदी को पूरा करें।

इतना सुनते ही देवीसिंह उठ खड़े हुए और सलाम कर कमरे के बाहर चले गए।

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