larki ke pichhe bhoot
अक्सर सुनने में आता है कि उस लड़की को भूत ने पकड़ लिया या फिरफलां महिला के ऊपर भूत सवार हो गया। लेकिन यह सुनने में बहुत कम आता है कि किसी पुरूष के ऊपर भूत सवार हो गया हो। आखिर ऐसा क्यों होता है, पढिए यह महत्वपूर्ण लेख।छात्राएं स्कूलों में बेहोशक्यों होती हैं?पिछले कुछ समय से पाठशालाओं में कुछ छात्राओं के कुछ समय के लिये बेहोश होने की घटनाएंप्रकाश में आती रही है। कभी किसी जिले से तो कभी दूसरे जिले से। रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव, बिलासपुर, सूरजपुर, कांकेर सहित मध्यप्रदेश के भी कुछ स्कूलों में ऐसी घटनाएं सामने आयी है, जिससे प्रभावित छात्राओं व स्कूलों में चिंता फैलने लगी। कुछ स्कूलों में भूतों का प्रकोप हो जाने की अफवाह फैली जिसमें आशंकित होकर कुछ पालकों ने डर के कारण अपनी बच्चियों को स्कूल जाने से मना कर दिया तो कुछ स्कूलों में तो बैगा बुलाकर झाड़ फूंक करायी गई। कुछ बच्चियों का स्वास्थ्य परीक्षण भी कराया गया पर बच्चियों के बेहोश हो जाने का क्रम कुछ अंतराल में जारी रहा, जिससे भ्रम व असमंजस की स्थिति पैदा होने लगी कि आखिर क्यों हो जाती है बच्चियां स्कूलों में बेहोश, इस समस्या का निवारण कैसे हो।स्कूल में बच्चियों के बेहोश हो जाने की घटना में से अनेक घटनाओं का मैंने परीक्षण किया, पीड़ित छात्राओं व उनके पालकों, शिक्षकों व ग्रामीणों से चर्चा भी की। कुछ ग्रामीण इन घटनाओं से काफी डरे हुए तथा भ्रम में थे। जब छात्राओं सेपूछताछ की गई तब उन्होंने कहा उन्हें कुछ अस्पष्ट छाया या साया दिखता है जिससे वे डरकर बेहोश हो जाती है। कुछ ने सफेद कपड़े पहिने किसी महिला साया तो किसी छात्रा ने काले कपड़े पहिने भूत दिखने की बात बतायी।कुछ मामलों में बेहोश होने के पूर्व बड़बड़ाने हाथ-पैर पटकने की बात भी सामने आयी जबकि उन बच्चियों के आस पास बैठने वाली छात्राओं व छात्रों में से कुछ ने बताया कि वे सामने वाली बच्ची की असामान्य हरकत से डरकर बेहोश हो गई थी। कथित भूत/भूतनी न देखने की बात कही। सभी छात्राओं के चेहरे पर पानी छिड़कने के बाद आँखे खोलकर होश में आ जाती है, कुछ मामलों में ग्रामीण बच्चियों को अपने घर ले गये तथा कुछ स्कूलों में बैगाओं नेआकर झाड़ फूंक की पर जब यह घटना बार-बार घटी तो पाठकों व शिक्षकों में डर फैलने लगा।स्कूलों में बेहोश हो जाने वाली घटनाओं में मैंने यह पाया कि सभी मामलों में कुछबातें सामान्य है जैसे सभी घटनाएं ग्रामीण अंचल में स्थित शालाओं की है। पीड़ित बच्चियां गरीब, किसान, खेतिहर परिवार की सदस्य है। सभी बच्चियां स्कूल जाने के पहले व लौटने के बाद भी घर व खेत के काम में हाथ बंटाती है। उन सभी बच्चियों की पढ़ाई का स्तर औसत मध्यम स्तर से भी नीचे है। ऐसी बच्चियों के माता-पिता अशिक्षित या अल्प शिक्षित है जो बच्चियों को पढ़ाने व मार्गदर्शन दे पाने में असमर्थ है, उनमें शिक्षा, स्वास्थ्य की जागरूकता की जबरदस्त कमी है तथा वे झाड़ फूंक, बैगा- गुनिया पर यकीन करते हैं, कुछ बच्चियां शारीरिक कमजोरी कुपोषण, आत्मविश्वास की कमी, एनीमिया की शिकार पायी गयी है। सभी घटनाओं में पीड़ित बच्चियों की संख्या स्कूल में दर्ज बच्चियों से काफी कम है।बच्चों को सम्बोधित करते डॉ0 मिश्रइस संबंध में एक खास पहलू पर भी हमें ध्यान रखने की आवश्यकता है कि स्कूलों में बेहोश होने की घटनाएं सिर्फ ग्रामीण अंचल के स्कूलों में ही क्यों होती है? आखिर बच्चियां ही क्यों बेहोश होती है, छात्र क्यों नहीं बेहोश होते, शहरों के स्कूलों,कान्वेन्ट स्कूलों में क्यों भूत नहीं आते? आखिर ये कैसे कथित भूत-प्रेत है जो सिर्फ गरीब, कुपोषित, अशिक्षित परिवार की बच्चियों को ही गांव-गांव जाकर बेहोश कर रहे हैं।विविधताओं से भरे इस समाज में विभिन्न जाति, धर्म, सम्प्रदाय के नागरिक है जिनमें से कुछ सामान्य शिक्षित तो काफी लोग ऐसे भी हैं जिन्हें शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला। गरीबी व दूसरे कारणों से वे स्कूल का मुंह भी नहीं देख पाये। हमारा कृषि प्रधान देश है,गांव में रहने वाले अधिकांश कृषक, मजदूर जिनकी संख्या अस्सी प्रतिशत से अधिक है उनके पास उपलब्ध शिक्षा,स्वास्थ्य की सुविधा में तथा हमारे देश के चंद बड़े शहरों मंक उपलब्ध स्वास्थ्य व शिक्षा के अवसरों में जमीन आसमान का फर्क है। अनेक स्थानों पर वे आज भी बैगाओं व ओझाओंकी बातों का पूरा भरोसा करते हैं जो गांवमें हमेशा उपलब्ध रहते हैं। बहुसंख्यक ग्रामीण गांव में जानवर के गुमने, बच्चे बीमार होने,गाय के दूध न देने, फसल व संक्रामक बीमारियों तक के परामर्श के लिये वे सहज उपलब्ध बैगा के पास फूंकवाने, झड़वाने जाते हैं। जो हर प्रतिकूल परिस्थिति में भूत, प्रेत, देवी देवता, तंत्र-मंत्र से बांधा जाना आदि बताकर न केवल उन्हें गुमराह करता है बल्कि उनका शोषण भी करता है, अनेक मामलोंमें पंचायतें बैगाओं का खुला विरोध नहीं कर पाती उनके फैसले में मूकदर्शक बनी रहती है।हमने यह पाया है कि ऐसे मामलों में कुछ बच्चे ऐसी वस्तुओं जैसे सफेद साड़ी पहिनी औरत, लाल कपड़ा, काला कपड़ा वाला भूत के दिखने की बातें बताते हैं जो आस-पास यहां तक उनके अगल-बगल भी बैठे बच्चों को दिखाई नहीं देती। कुछ बच्चे ऐसे ही कुछ आवाजों के सुनने की भी बातें करते हैं जो बाकी लोगों को सुनाई नहीं देती। कुछ ग्रामीण व बच्चे इसे अन्य व्यक्ति का कारनामा तो कुछ इसे भूत-प्रेत, देवी देवता का दिखना मानते हैं। वास्तव में अनोखी व रहस्यात्मक लगने वाली यह सब व्यक्तिगत अनुभव व बाते इन्द्रिय जनित भ्रम के अलावा कुछ नहीं है। मनोवैज्ञानिक इस प्रकार के अनुभव को व्यक्ति के व्यक्तित्व,मनोव्यवहार में आये बदलाव व मानसिक स्थिति में आये परिवर्तन के नजरिये से देखते हैं। वास्तव में जब हमारी इन्द्रियां जब भ्रम की अवस्था में होती है तब ऐसी घटनाएं कोई भी व्यक्ति महसूस कर सकता है। उदाहरण के तौर पर स्टेशन में किसी दूसरे ट्रेन के चलने पर सामानांतर पटरी पर खड़ी जिस ट्रेन में स्वयं बैठे है के चलने का अभास होना। किसी कड़वी या तीखी वस्तु के खाने के बाद सामान्य पानी में मिठास अनुभव करना, किसी की अंदर दरवाजें के बंद होने की अवाज नहीं होने पर भी सुनाई पड़ना।भूत-प्रेत दिखना,उनकी आवाजें सुनना भी इसी प्रकार का भ्रम है। कोई व्यक्ति किसी मामले या घटना के संबंध में बार-बार सुनने व विचार करता है तब उन तथ्यों को मस्तिष्क में ग्रहण करता है जो किसी रहस्यमयी आवाजों,चित्रों, वरदानों श्रापों के बारे में भी हो सकतेहैं। शरीरिक अस्वस्थता,चोंटे,किस्से कहानियां,अफवाहें, मादक द्रव्य, कुछ दवाएं ऐसी भ्रम को बढ़ाने का काम करती है, मानसिक तनाव, अनिद्रा, चिंता भी ऐसे लक्षणों को जन्म दे सकता है।हमें यह समझने की आवश्यकता है कि ग्रामीण अंचल की छात्राएं जिन विपरीत परिस्थितियों में रह रही है, पढ़ रही है उनकी स्थिति सुधारने की आवश्यकता है। उन्हें पढ़ाई करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाता, उसे स्कूल आने के पहले से लेकर स्कूल जाने के बाद भी घर का काम करना पड़ता है। पढ़ाई समझ में न आने की कठिनाई, संसाधन की कमी, परीक्षा का डर उनके मस्तिष्क में दबाव बनाकर रखता है। किसी मनोवैज्ञानिक ने कहा हैं बच्चों में स्कूल का डर सबसे अधिक देखा गया है। कोई भी छोटा बच्चा जो घर से स्कूल जाना शुरू करता है तो प्रारंभ में ही अपने आपको असुरक्षित महसूस करता है। सभी बच्चे एक जैसे नहीं होते, उनकी रूचियां,व्यवहार एक-दूसरे से कुछ न कुछ अलग रहता है। कुछ बच्चे स्कूल में अकेलापन भी महसूस करते हैं, कुछ बच्चे तो स्कूल न जाने के लिए पेट दर्द, सिर दर्द तबियत खराब लगने के बहाने भी बनाते हैं। कभी होमवर्क न करपाने व परीक्षा की तैयारी न होने से प्रताड़ना के डर से स्कूल न जाने व यहां तक नंबर कम पाने के भय से कभी परीक्षा में भी गेप ले लेते हैं। गांवों में तो हाल इससे भी खराब है, बच्चों में होने वाली इस शारीरिक मनोवैज्ञानिक समस्य कोसामाजिक, मानसिक समस्या मानकर निपटने की आवश्यकता है। बच्चों के लिये शैक्षणिक पाठ्यक्रम तैयार करते समय हमें इस बारे में भी सकारात्मक परिवर्तन करने की आवश्यकता है।