BAGHAT SINGH
भगत सिंह
लेखक
साहिल मोर
बड़ोदा मोर-131304
Baroda Mor Villages in Gohana, Sonipat, Haryana
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WhatsApp cont: 9813841890
प्रकाशकीय
क्रांतिकारी देशभक्त सरदार भगत सिंह
1
अपने महापुरुषों का स्मरण भारत में एक श्रेष्ठ परम्परा रही है। कथा-कहानियों से लगाकर पुस्तकों तक उनके कर्तृत्व और आदर्श जीवन का सजीव चित्रण किया गया है। यदा-कदा पवों के माध्यम से भी हमने उनका स्मरण करना अपना पुनीत कर्तव्य समझा है। रामनवमी में भगवान राम का स्मरण, शिवरात्रि को भगवान शिव का स्मरण, नवरात्रों में भगवती दुर्गा माँ का स्मरण, वसन्तोत्सव में वाणी की अधिष्ठात्री सरस्वती की वन्दना, हिन्दू साम्राज्य दिवस पर छत्रपति शिवाजी महाराज इत्यादि का स्मरण हमारे लिए शिक्षाप्रद और हमारी प्रेरणा के स्त्रोत रहे हैं। यह गाथा है महान क्रांतिकारी देशभक्त सरदार भगत सिंह के शौर्य और पराक्रम की। अपने 23 वर्ष 5 माह और 23 दिन के अल्प कालीन जीवन मे जिस महा-मानव ने देश भक्ति के मायने बदल कर रख दिये और मातृभूमि के प्रति कर्तव्य कैसे निभाया जाता है, इसकी अद्भुत मिसाल दी। भगत सिंह का जीवन चरित्र लाखो नौजवानों को देश और मातृभूमि के प्रति कर्तव्य पालन की सीख देता रहा है।
SAHIL MOR
भगत सिंह
एक शाम को तीन वर्ष की आयु का एक बच्चा अपने पिता के साथ घूमने निकला। उसके पिता के साथ एक वयोवृद्ध व्यक्ति और भी थे। बातचीत करते हुए वे गाँव के बाहर तक चले गये। वहाँ खेतों की हरियाली देखकर उन्हें अच्छा लग रहा था। एक खेत की मोड़ पर से होते हुए वे दोनों प्रौढ़ व्यक्ति आगे बढ़ते गये। अपने साथ चल रहे बच्चे की पदचाप सुनाई न देने पर बच्चे के पिता ने पीछे मुड़कर देखा। उन्हें दिखा कि बच्चा खेत में बैठकर कोई पौधा रोप रहा था। पिता को अचरज हुआ। “तुम क्या कर रहे हो ?"—उन्होंने पूछा। "देखिये पिताजी, मैं इस खेत में सब तरफ बन्दूकें उपजाऊँगा।" बच्चे ने भोला-भाला उत्तर दिया। उसकी अाँखें चमक रही थीं। उनमें उसका यह दृढ़ विश्वास झलक रहा था कि खेत में बंदूकें जरूर पैदा होंगी। उस नन्हें से बच्चे के शब्दों से दोनों बुजुर्ग आश्चर्यचकित थे। वह बच्चा भगत सिंह था, जिसने बाद में भारत की स्वाधीनता के लिए वीरतापूर्वक लड़ाई लड़ी और अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।
जन्म
क्रांतिकारी भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को पंजाब प्रांत, ज़िला-लयालपुर, के बावली गाँव मे हुआ था, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है। पाकिस्तान मे भी भगत सिंह को आज़ादी के दीवाने की तरह याद किया जाता है। भगत सिंह के पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था।
भगत सिंह के पांच भाई – रणवीर, कुलतार, राजिंदर, कुलबीर, जगत और तीन बहनें – प्रकाश कौर, अमर कौर एवं शकुंतला कौर थीं ।
अपने चाचा अजित सिंह और पिता किशन सिंह के साये मे बड़े हो रहे भगत सिंह बचपन से अंग्रेज़ो की ज्यादती और बर्बरता के किस्से सुनते आ रहे थे। यहाँ तक की उनके जन्म के समय उनके पिता जेल मे थे। चाचा अजित सिंह भी एक सक्रीय स्वतंत्रता सेनानी थे। भगत सिंह की पढ़ाई दयानंद एंग्लो वैदिक हाई स्कूल में हुई। भगत सिंह लाहौर के नेशनल कॉलेज से बी.ए कर रहे थे तभी उनके देश प्रेम और मातृभूमि के प्रति कर्तव्य ने उनसे पढ़ाई छुड़वा कर देश की आज़ादी के पथ पर ला खड़ा किया।
एक सामान्य नवयुवक के सपनो से अलग भगत सिंह का बस एक ही सपना था – “आज़ादी”। और ऐसा लग रहा था कि भगत सिंह अपने देश अपनी मातृभूमि को अंग्रेज़ो से आजाद कराने के लिए ही साँसे ले रहे थे।
भगत सिंह की विचारधारा
भगत सिंह एक स्पष्ट वक्ता और अच्छे लेखक थे। बचपन से ही क्रांतिकारी पात्रो पर लिखी गयी किताबे पढ़ने मे भगत सिंह को रुचि थी। भगत सिंह को हिन्दी, पंजाबी, अंग्रेजी, और बंगाली भाषा का ज्ञान था। एक आदर्श क्रांतिकारी के सारे गुण भगत सिंह मे थे। वह धार्मिक मान्यता मे यानी अर्चना पुजा मे ज्यादा विश्वास नहीं रखते थे। अगर ये कहा जाये के भगत सिंह नास्तिक थे तो गलत नहीं होगा।
सभी के मित्र
भगत सिंह सभी को प्यारे लगते थे। उनकी मुस्कान में जादू था। सब लोग उनके बारे में कहा करते थे-यह बच्चा एक दिन बहुत नाम कमायेगा और खूब प्रसिद्ध आदमी बनेगा।
उनकी माताजी विद्यावती का जीवन शुरू से ही दु:खों से भरा हुआ था। उनके क्रांतिकारी पति प्राय: कहीं न कहीं बाहर रहा करते थे।विद्यावती को हमेशा यह भय सताता था कि वह किसी समय जेलभेज दिये जायेंगे। उनका परिवार स्वाधीनता संग्राम सेनानियों का होने के कारण, उनके यहाँ का कोई न कोई व्यक्ति जेल में बना रहता था। इसलिए विद्यावती को ही पूरे परिवार की देखरेख करनी पड़ती थी। चिन्ता, परेशानी और उलझनों के उन दिनों में केवल अपने बच्चों से ही उनका जी बहल जाता था। वे सब होशियार और बहादुर थे। इस कारण विद्यावती अपने कष्ट और दु:ख भूल जाया करती थी। भगत सिंह को वे विशेष प्यार करती थीं।
भगत सिंह प्राथमिक पाठशाला में भर्ती किये गये। बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में उनकी गहरी रुचि थी। अपनी कक्षा में वे अन्य छात्रों से बहुत आगे रहा करते थे। उनकी लिखावट बहुत ही सुन्दर थी। वे अपने शिक्षकों के सबसे अधिक प्रिय विद्यार्थी थे। उनके सहपाठी उन्हें खूब चाहते थे, वे उन सबके नेता थे। उनसे बड़ी उम्र के लड़के बालक भगत सिंह को कधों पर बैठाकर स्कूल ले जाते थे और उसी तरह वापस घर पहुँचाते थे। उनके बाल्यकाल की बहुत सी बातों और घटनाओं से ऐसा संकेत मिलने लगा था कि वे क्रांतिकारियों के एक नेता अवश्य बनेंगे।
भगत सिंह आसानी से सभी को दोस्त बना लिया करते थे। उनके सहयोगी स्वभावत: उनके गहरे दोस्त थे। गाड़ीवाले, कुली और सड़क झाड़ने वाले लोग भी उनके मित्र थे।
एक बार भगत सिंह के लिए कपड़े सिलवाये गये। जिस बूढ़े दर्जी ने कपड़ों की सिलाई की, उसने कपड़े लाकर भगत सिंह के घर में दे दिये और चलता बना। “वह कौन आदमी है, जो कपड़े लेकर आया था ?”—माता विद्यावती ने पूछा। वह मेरा दोस्त है -भगत सिंह ने जवाब दिया “क्या ? वह दर्जी भी तुम्हारा दोस्त है ?” आश्चर्य के साथ विद्यावती ने कहा। “हाँ, इस गाँव का प्रत्येक व्यक्ति मेरा दोस्त हैं", भगत सिंह ने उत्तर दिया। इस तरह, बचपन से ही लोगों का दिल जीतने की योग्यता और क्षमता भगत सिंह में बलवती होती गई।
शेर का बच्चा
“ भगत सिंह के दो चाचा थे। उनमें स्वर्ण सिंह को अंग्रेजों ने फिर से जेल में भेज दिया था। कैदखाने में जिंदगी बहुत ही कष्टदायक और दाहक थी, इसलिए स्वर्ण सिंह वहाँ बीमार पड़ गये। जेल से रिहा होने के बाद भी उनकी तन्दुरुस्ती ठीक नहीं हो सकी और उनका देहान्त हो गया। दूसरे चाचा अजीत सिंह जब जेल से रिहा हुए तो देश छोड़कर विदेश चले गये। भगत सिंह की चाचियाँ अक्सर अपने पतियों के कष्टों और देशहित के लिए तपस्या को स्मरण करतीं और रो पड़ती थीं। यह देखकर भगत सिंह हिम्मत के साथ उनसे कहते—“चाची मत रोओ। मैं जब बड़ा होऊँगा तब अंग्रेजों को भगाकर अपने चाचा जी को वापस ले आऊँगा। मैं अंग्रेजों से बदला लूंगा, जिनके कारण मेरे चाचा जी सख्त बीमार पड़ गये।” उस छोटे बच्चे के हिम्मत भरे शब्दों को सुनकर, रोती हुई वे महिलायें हँसने लगती थीं। कम से कम उस समय थोड़ी देर के लिए ही सही, वे अपना दु:ख भूल जाती थीं।
जब भगत सिंह चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तब उन्होंने अपने सहपाठियों से प्रश्न किया-"बड़े होने पर तुम लोग क्या बनना चाहते हो ?”
प्रत्येक लड़के ने अपना अलग-अलग जवाब दिया डॉक्टर बनने का मेरा इरादा है।"—एक ने कहा। “मैं एक सरकारी अफसर बनूंगा"—दूसरे ने कहा। तीसरे ने कहा कि बड़ा होने पर मैं शादी करूंगा। “क्या शादी करना कोई बहुत बड़ी सफलता है? कोई भी शादी कर सकता है। भाई मैं तो बड़ा होने पर अंग्रेजों को हिन्दुस्तान से खदेड़ दूंगा।इस तरह बचपन से ही भगत सिंह की नसों में देश भक्ति प्रवाहित होने लगी थी।
माध्यमिक शिक्षण पूरा होने तक भगत सिंह ने अपने परिवार के क्रांतिकारियों के सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त कर ली थी। घर में उन्होंने उन वीर पुरुषों से सम्बन्धित सारे कागजात पढ़ लिये थे। इसके फलस्वरूप उनके हृदय में देश की स्वाधीनता के लिए संषर्ष करने की इच्छा खूब बलवती होती चली गई।
भगत सिंह ने अपना प्राथमिक शिक्षण बंगा में पूरा किया। उसके बाद वे माध्यमिक शाला में पढ़ने के लिए लाहौर चले गये। देशभक्त सरदार किशन सिंह अंग्रेजों के भक्तों द्वारा संचालित स्कूल में अपने बेटे की भर्ती नहीं कराना चाहते थे। इसलिए भगत सिंह ने एक प्राईवेट स्कूल में अपनी पढ़ाई को जारी रखा।
भगत सिंह एक ग्रामीण बालक थे। उनके पिता को ऐसा लगता था कि कहीं मेरा बेटा पढ़ाई-लिखाई में पिछड़ न जाये। इसलिए उन्होंने भगत सिंह को घर में पढ़ाने के लिए एक शिक्षक नियुक्त किया। किन्तु दो दिनों में ही शिक्षक को पता चल गया कि यह लड़का कितना होशियार है। मैं इस बालक को क्या सिखाऊँ। उसने तो सब कुछ पहले से ही पढ़ रखा है शिक्षक ने सरदार किशन सिंह से कहा |
भगत सिंह ने पूरे उत्साह-उमंग के साथ अध्ययन किया। उनकी बुद्धिमानी पर शिक्षकों को बड़ा आश्चर्य होता था। इतिहास, भूगोल और अंक गणित में उन्हें बहुत अच्छे अंक मिला करते थे। किन्तु अंग्रेजी में उन्हें कम नम्बर मिले-150 में सिर्फ 68 । यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि वे अंग्रेजों से हमेशा घृणा करते थे। उस समय उन्होंने अपने पितामह को जो पत्र लिखा था, उसमें उनके ये शब्द सचमुच मनोरंजक हैं, “मुझे अंग्रेजी में 150 में से 68 अंक ही मिले। पास होने के लिए 50 अंक ही काफी होते हैं। इस तरह मैं प्रवीणता के साथ परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया।” होशियार बालक भगत सिंह ने अपने को मिले कम अंकों के बारे में इस ढंग से छुपाकर अपने पितामह को समझा दिया।
क्रांति की चिंगारी
13 अप्रैल, 1919 का दिन। अमृतसर के जलियाँवाला बाग में बैसाखी के पावन पर्व पर एकत्रित हजारों नर-नारी, बच्चे व बुढ़े उल्लासमय वातावरण में उपस्थित। एक बहुत ही दुखदायी घटना घटी। ब्रिटिश सैनिकों ने जलियाँवाला बाग में एकत्रित समूह पर गोलियाँ बरसाई और काफी समय तक गोलियाँ चलाते रहे। जनसमूह के लिए वहाँ से बचकर निकलने का कोई रास्ता नहीं था। असंख्य व्यक्ति—जिनमें बड़ी उम्र के पुरुष-स्त्रियाँ और छोटे बच्चे शामिल थे—अंग्रेज सैनिकों की गोलियों से धराशायी होकर शहीद हो गये। वहाँ जैसे रक्त की नदी—सी बह गई। उस घटना से देश भर की जनता के दिल व दिमाग में आतंक और क्रोध फेल गया। जलियाँवाला बाग के उस नरमेध ने समूचे विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया
भगत सिंह की उम्र उस समय 12 वर्ष की थी! इस घटना से उनको गहरा धक्का लगा। दूसरे दिन वह स्कूल बंद होने पर घर नहीं लौटे। उनके घर के लोग उनकी राह देखते रहे और काफी देर होते देख चिंतित हो उठे।
उस दिन स्कूल जाने की बजाय भगत सिंह सीधे उस दुर्देवी घटनास्थल पर पहुँचे। वहाँ तैनात पुलिस के पहरेदारों के बीच से किसी तरह वे जलियाँवाला बाग के भीतर चले गये। वहाँ उन्होंने एक बोतल में उस गीली मिट्टी को भर लिया, जो भारतीयों के रक्त से सन गई थी और फिर वे घर लौट आये। बहुत देर लगाकर घर लौटते देख उनसे उनकी छोटी बहन ने पूछा-"तुम इतने समय तक कहाँ थे ? माताजी तुम्हारे लिए भोजन रखकर कब से तुम्हारी राह देख रही हैं।" बहन को अपने हाथ की बोतल दिखलाते हुए भगत सिंह ने कहा-“यह देखो। यह हमारे भाई-बहनों का खून है, जिन्हें अंग्रेजों ने मार डाला है। इसे प्रणाम करो।
फिर उन्होंने एक आले में उस बोतल को रख दिया और उस पर फूल चढ़ाकर उसकी पूजा की।
जो जनता जलियाँवाला बाग में एकत्रित हुई थी, वह एकदम निहत्थी थी। किसी के पास कोई शस्त्र नहीं थे। उस स्थान से निकल भागने का कोई रास्ता भी नहीं था और ऐसे शांत लोग अंग्रेजी सैनिकों की गोलियों से मार डाले गये। इस तरह के विचार बालक भगत सिंह के मन में बार-बार उठ रहे थे। उनमें यह भावना और दृढ़ व बलवती बन गई कि अंग्रेजों को भारत से अवश्य खदेड़ देना चाहिए।
वह समय था, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इस देश की आजादी के लिए लड़ रही थी उस आंदोलन से सब तरफ जनता के हृदय में देश प्रेम जागृत हो उठा। उसके फलस्वरूप देश में एकता की भावना मजबूत होती चली गई। नवीं कक्षा में प्रवेश करने के पूर्व ही भगत सिंह ने निश्चय कर लिया कि स्वाधीनता-संग्राम में कुदकर अपने देश की खातिर काम करेंगे। उस समय उसकी उम्र केवल तेरह वर्ष की थी।
भगत सिंह ने अपने निश्चय के बारे में पिता जी को बतला दिया और उनकी अनुमति माँगी। किशन सिंह स्वयं एक क्रांतिकारी थे, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र को सहर्ष अनुमति दे दी। भगत सिंह ने स्कूल छोड़ दिया और राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ गये।
उन दिनों देश में विदेशी वस्त्रों के विरुद्ध एक जोरदार आंदोलन चल रहा था। यदि विदेशी वस्त्र खरीदेंगे तो इससे दूसरे देशों को लाभ होगा। इसलिए हमें स्वदेशी वस्त्र ही पहनने चाहिए। विदेशी वस्त्रों को अवश्य जला देना चाहिए—इस तरह की सीख देश के नेतागण जनता को दे रहे थे। भगत सिंह ने इस आन्दोलन में बड़े उत्साह से भाग लिया। बचपन से वे केवल खादी ही पहनते थे। इसीलिए खूब जोश के साथ उन्होंने स्वदेशी वस्त्रों की ही पहनने का लोगों से आग्रह किया और विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। हर हफ्ते वे विदेशी वस्त्रों को एकत्रित करके उनकी होली जलाया करते थे।
भगत सिंह पर 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड का प्रभाव
जलीयांवाला बाग मे शांतिपूर्ण तरीके से सभा आयोजित करने के इरादे से इक्कठा हुए मासूम बेकुसूर लोगो को जिस तरह से घेर कर मारा गया, उस घटना ने भगत सिंह को झकझोर कर रख दिया। जलीयांवाला बाग मे बच्चो, बूढ़ो, औरतों, और नौजवानो की भारी तादाद पर अंधाधुंध गोलियां बरसा कर अंग्रेज़ो ने अपने अमानवीय, क्रूर, और घातकी होने का सबूत दिया था। बंदूक से निकली गोलियों से बचने के लिए मासूम लाचार लोग वहाँ ऊंची दीवारों से कूदने की कोशिस करते रहे। बाग मे मौजूद पानी भरी बावली मे कूदने लगे। जान बचाने की अफरातफरी मे चीख पुकार करते उन लोगो पर ज़ालिम अंग्रेज़ो को अत्याचार करते ज़रा भी दया नहीं आयी।
जलीयांवाला बाग मे जब यह हत्याकांड हुआ तब भगत सिंह की उम्र केवल बारह साल थी। जलीयांवाला बाग हत्याकांड की खबर मिलते ही नन्हें भगत सिंह बारह मील दूर तक चल कर हत्याकांड वाली जगह पर पहुंचे। जलीयांवाला बाग पर हुए अमानवीय, बर्बर हत्याकांड के निशान चीख-चीख कर जैसे भगत सिंह को इन्सानियत की मौत के मंज़र की गवाही दे रहे थे।
पहला कदम
सन् 1922 में कांग्रेस ने गोरखपुर जिले के चोरीचौरा नामक कस्बे में एक जुलूस निकाला। उसी वक्त कुछ उपद्रवी लोगों ने 22 पुलिस सिपाहियों को एक मकान में बन्द करके उसमें आग लगा दी। इससे पहले इसी तरह यह हिंसात्मक कविता कृत्य मुंबई और मद्रास में भी हो चुके थे महात्मा गांधी ऐसी तमाम बातों से बहुत दुखी हुए और उन्होंने जनता से अनुरोध किया कि असहयोग आंदोलन को रोक दिया जाये। उस समय वह आन्दोलन देशभर में पूरे जोर-शोर से चल रहा था।
नौजवान भगत सिंह को वह अांदोलन रुक जाने से गहरी निराशा हुई। वे उस समय 15 वर्ष के थे। क्या सिर्फ 22 व्यक्तियों के मर जाने से इतने विशाल महत्वपूर्ण आंदोलन को त्यागा जा सकता है? इसके कुछ ही समय पूर्व एक उन्नीस वर्षीय क्रांतिकारी करतार सिंह को अंग्रेज सरकार ने फाँसी पर लटकाया था। तब अहिंसा समर्थक किसी ने भी कोई आपत्ति नहीं उठाई थी। फिर अब क्यों अहिंसा इतनी महत्वपूर्ण बन गई ? इस तरह के विचारों ने अहिंसा और असहयोग आंदोलनों के प्रति भगत सिंह की निष्ठा को कम कर दिया। वे आगे बढ़ते गये। इस दृढ़ विश्वास के साथ कि देश की आजादी को प्राप्त करने का एकमात्र व्यावहारिक तरीका सशस्त्र क्रांति ही है।
भगत सिंह ने आयरलैंड, इटली और रूस के क्रांतिकारियों की जीवनी का गहरा अध्ययन किया। वे जितना अधिक उनके बारे में पढ़ते, उतनी ही गहरी आस्था उनके मन में जोर पकड़ती गई कि युद्ध से ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए देश के नौजवानों को क्रांति की ओर मुड़ने की प्रेरणा दी जाये। देश की आजादी के लिए लड़ने का विचार मन में आते ही युवकों में उसके लिए खूब जोश उमड़ पड़ना चाहिए—ऐसा सोचकर भगत सिंह ने युवकों को संगठित करना आरंभ कर दिया।
अपने अध्ययन को जारी रखने के लिए भगत सिंह नेशनल कॉलेज में भर्ती हो गये। उस कॉलेज को लाला लाजपतराय के समान महान देशभक्तों ने आरंभ किया इसके फलस्वरुप वह कई दिनों तक स्कूल नहीं गए थे किन्तु भगत सिंह को इतिहास और राजनीति की अच्छी जानकारी हो गई थी। कॉलेज के प्राचार्य आश्चर्यचकित रह गये और उन्होंने उन्हें कॉलेज में सीधे भर्ती कर लिया।
दिन में क्लास में बैठकर जो कुछ पढ़ाया जाता था, उसे वह ध्यान से सुनते थे और शाम को कई मित्रों को एकत्रित करके उनसे आने वाली क्रांति के बारे में चर्चा करते थे। यह उनका रोज का कार्यक्रम बन गया।
कॉलेज में भगत सिंह ने कई नाटकों में भाग लिया। एक शिक्षक ने उन्हें 'राणा प्रताप', 'सम्राट चन्द्रगुप्त' और 'भारत दुर्दशा' में प्रमुख पात्रों की भूमिका का अभिनय करते देखा तो यह भविष्यवाणी की थी कि-'यह लड़का अवश्य ही एक महापुरुष बनेगा ?'
भगत सिंह पर गांधीजी के असहयोग आंदोलन से पीछे हटने का प्रभाव
महात्मा गांधी भी एक दिग्गज स्वतंत्रता सेनानी थे। सत्य बोलना, अहिंसा के मार्ग पर चलना, अपनी बात दूसरों से अच्छे तरीके से मनवाना, यह सब गांधीजी के अग्रिम गुण थे। महात्मा गांधीजी चौरीचौरा मे हुई हिंसात्मक कार्यवाही के चलते जब अंग्रेज़ो के खिलाफ छेड़ा हुआ असहयोग आंदोलन रद्द किया तब भगत सिंह और देश के कई अन्य नौजवानो के मन मे रोष भर गया। और तभी भगत सिंह ने गांधीजी के अहिंसावादी विचार धारा से अलग पथ चुन लिया।
शादी नहीं करनी है
भगत सिंह ने अपने आपको केवल पुस्तकों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं रखा। क्रांति के बारे में वे जितनी अधिक जानकारी हासिल करते, उतनी ही प्रबल भावना हृदय में, क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल होने के लिए उत्पन्न होती चली गई। बंगाल क्रांतिकारियों का प्रांत था। उसने भगत सिंह को अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने उस प्रांत के क्रांतिकारियों से सम्पर्क स्थापित किया। तब वहाँ क्रांतिकारी पार्टी के नेता शचीन्द्रनाथ सान्याल थे। उसके प्रत्येक सदस्य को एक शर्त स्वीकार करनी पड़ती थी। अपने नेता के आह्वान् पर क्रांतिकारी सदस्य को अपना घरबार छोड़कर तुरंत शामिल होने के लिए सदा तैयार रहना आवश्यक था। भगत सिंह ने यह शर्त मंजूर कर ली।
उधर भगत सिंह की दादी इस बात पर खूब जोर दे रही थी कि उसेशादी कर लेनी चाहिये। उनके लिए एक लड़की पसंद की गई और रस्मी तौर पर निर्णय के लिए एक दिन निश्चित हुआ।
वह दिन तेजी से निकट आ रहा था, किन्तु ठीक उसी समय क्रांति के नेता ने उन्हें बुलाया। भगत सिंह घर से निकल पड़े और लाहौर चले गये। उसके बाद उनके बारे में कुछ समय तक किसी को पता नहीं चल पाया कि वे कहाँ गये हैं।
घर छोड़ने के पूर्व भगत सिंह ने एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था—“मेरे जीवन का उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ना ही है। मुझे सांसारिक सुख की चाह नहीं है। मेरे यज्ञोपवीत के समय मेरे चाचा जी ने मुझसे एक पवित्र वचन लिया था। मैंने देश की खातिर बलिदान हो जाने की प्रतिज्ञा की थी। तदनुसार, मैं अपनी खुद की खुशियों को त्याग रहा हूँ और देश की सेवा के लिए घर से बाहर जा रहा हूँ।
भगत सिंह कानपुर पहुँच गये। पहले उन्होंने कुछ दिनों तक समाचारपत्र बेचकर वहाँ जीवन निर्वाह किया। बाद में वे एक क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी के सम्पर्क में आये। उन्हें उनके दैनिक समाचारपत्र 'प्रताप' के कार्यालय में एक जगह मिल गयी और वहीं उन्हें एक क्रांतिकारी के रूप में प्रथम प्रशिक्षण मिला। क्रांतिकारी सामान्यत: अपना नाम बदल लेते हैं, जिससे कि लोग उन्हें जान न पायें। भगत सिंह बलवन्त सिंह बन गये।
घर पर भगत सिंह के माता-पिता बहुत चिन्ता करने लगे। उन्हें अपने पुत्र की फिक्र सताने लगी। उनकी दादी उन्हीं दिनों सख्त बीमार थीं। वे अपने पोते को देखने के लिए बहुत उत्सुक थी भगत सिंह के परिवार के लोगों ने उनकी खूब तलाश की और उन्हें एक दिन वापस घर ले आये
क्रांति के प्रवाह में
घर में भी भगत सिंह बेकार नहीं बैठे। उन्हीं दिनों अकाली दल ने एक जुलूस का आयोजन किया था परंतु जुलूस को रोकने के लिए जिला कलेक्टर दिलबाग सिंह ने एक आदेश जारी किया। अकाली दल के सदस्यों को कोई भी व्यक्ति खाने-पीने की कोई चीज न दे। कलेक्टर, जिसने आदेश जारी किया था, भगत सिंह के परिवार का ही आदमी था। किन्तु सरकारी अधिकारी होने के कारण वह क्रांतिकारियों को पसन्द नहीं करता था।
भगत सिंह ने अपने गाँव में आने वाले अकाली दल के लोगों की मदद करने का निश्चय किया। उन्होंने गाँव के लोगों की स्थिति की ठीक से जानकारी कराई और रात के समय अकाली दल के लोगों की गुप्त रूप से भोजन की पूर्ति करने का प्रबन्ध किया। इस तरह एक सप्ताह बीत गया। अकाली दल का कार्यक्रम लगातार चलता रहा और वह खूब सफल हुआ। दिनभर गाँव में देश की आजादी के बारे में चर्चाएँ हुआ करती थीं और जनता का उस संबंध में क्या कर्तव्य है, यह समझाया जाता था। भगत सिंह के भी व्याख्यान होते थे।
कलेक्टर को जब यह पता चला कि उसके आदेश के विरुद्ध लोगों ने अकाली दल को मदद दी है, तो उसने भगत सिंह की गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया। तब भगत सिंह की उम्र केवल 17 वर्ष की थी। वे वयस्क नहीं थे, इसलिए गिरफ्तार नहीं किये जा सके।
इसे कलेक्टर और भी अधिक नाराज हो गए भगत सिंह उम्र में छोटा हो सकता है लेकिन उसका दिमाग छोटी उम्र के लोगों जैसा नहीं है”, वह खीझकर बोला।
गिरफ्तारी और रिहाई
भगत सिंह में उत्साह झरने की तरह प्रवाहित होता था। उनकी हलचलों के लिए उनका गाँव बहुत छोटा पड़ गया। वे लाहौर चले गये। वहाँ क्रांतिकारियों का एक संघ था। उसका नाम ' नवजवान भारत सभा' था। भगत सिंह उसके सचिव बन गये।
बंगाल के 'क्रांतिदल' की तरह, इस नई क्रांतिकारी यूनियन ने पंजाब की जनता को क्रांति का पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया। ऊपरी तौर पर 'नवजवान भारत सभा' का उद्देश्य भारतीय संस्कृति का प्रचार करना और नौजवानों को बलवान बनाना आदि था। किन्तु उसका असली उद्देश्य देश की आजादी के लिए क्रांति करना ही था।
कुछ ही दिनों के भीतर, इस संगठन की शाखाएँ विभिन्न स्थानों में कार्य करने लगीं। क्रांतिकारियों के जन्म दिन समारोह पूर्वक मनाना, इस संगठन के कार्यक्रमों का एक महत्वपूर्ण अंग था। 'नवजवान भारत सभा' के सदस्य, क्रांतिकारियों के चित्रों को खादी की मालाओं से खूब सुंदर ढंग से सजाकर, जूलूस निकालते थे। वे अपनी उंगलियों को काटकर, उनसे निकलने वाले खून से क्रांतिकारियों के चित्रों में उनके माथे पर रक्त-तिलक लगाया करते थे और उन वीरों के बारे में भाषण देते थे। उन दिनों भगत सिंह को आम-सभाओं में व्याख्यान देने का अच्छा अभ्यास हो गया। उन्होंने कॉलेजों के छात्र—संघों से अपना सम्पर्क स्थापित किया। कलेक्टर और भी अधिक नाराज हो गया भगत सिंह उम्र में छोटा हो सकता है लेकिन उसका दिमाग छोटी उम्र के लोगों जैसा नहीं है”, वह खीझकर बोला। गिरफ्तारी और रिहाई भगत सिंह में इससेउत्साह झरने की तरह प्रवाहित होता था। उनकी हलचलों के लिए उनका गाँव बहुत छोटा पड़ गया। वे लाहौर चले गये। वहाँ क्रांतिकारियों का एक संघ था। उसका नाम ' नवजवान भारत सभा' था। भगत सिंह उसके सचिव बन गये। बंगाल के 'क्रांतिदल' की तरह, इस नई क्रांतिकारी यूनियन ने पंजाब की जनता को क्रांति का पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया। ऊपरी तौर पर 'नवजवान भारत सभा' का उद्देश्य भारतीय संस्कृति का प्रचार करना और नौजवानों को बलवान बनाना आदि था। किन्तु उसका असली उद्देश्य देश की आजादी के लिए क्रांति करना ही था। कुछ ही दिनों के भीतर, इस संगठन की शाखाएँ विभिन्न स्थानों में कार्य करने लगीं। क्रांतिकारियों के जन्म दिन समारोह पूर्वक मनाना, इस संगठन के कार्यक्रमों का एक महत्वपूर्ण अंग था। 'नवजवान भारत सभा' के सदस्य, क्रांतिकारियों के चित्रों को खादी की मालाओं से खूब सुंदर ढंग से सजाकर, जूलूस निकालते थे। वे अपनी उंगलियों को काटकर, उनसे निकलने वाले खून से क्रांतिकारियों के चित्रों में उनके माथे पर रक्त-तिलक लगाया करते थे और उन वीरों के बारे में भाषण देते थे। उन दिनों भगत सिंह को आम-सभाओं में व्याख्यान देने का अच्छा अभ्यास हो गया। उन्होंने कॉलेजों के छात्र—संघों से अपना सम्पर्क स्थापित किया।
उन्होंने क्रांति का संदेश हर तरफ फैला दिया तब तक वे पुलिस की निगाह में आ गये। भगत सिंह की हलचलों पर खुफिया दल के लोगों की कड़ी निगाह रहने लगी।
एक दिन जब वे अमृतसर में एक ट्रेन से उतरकर बाहर निकल रहे थे तब खुफिया लोगों ने उनका पीछा किया। उनसे बच निकलने के लिए भगत सिंह ने दौड़ लगाई। परन्तु वे जिधर जाते उधर उन्हें खुफिया दल के लोग सामने नजर आते। वे सब ओर से घिर गये थे। बचने का कोई उपाय नहीं दिखता था। आखिर वे किसी तरह एक वकील के घर में घुसकर छिप गये और उस दिन उन्होंने पुलिस द्वारा गिरफ्तार होने से अपने को बचा लिया। बाद में वे चुपचाप ट्रेन में बैठकर लाहौर के लिए रवाना हो गये। जब ट्रेन लाहौर पहुँची तो पुलिस ने वहाँ उन्हें गिरफ्तार कर लिया और लाहौर फोर्ट जेल में ले जाकर बंद कर दिया।
भगत सिंह को पता नहीं चला कि वे क्यों गिरफ्तार किये गये हैं। कुछ दिन-पूर्व किन्हीं उपद्रवियों ने दशहरे के एक जुलूस पर एक बम फेंक दिया था। उससे कुछ लोगों की मृत्यु हो गई थी। पुलिस का शक था कि उसके पीछे क्रांतिकारियों का हाथ है। इसलिए उन्होंने भगत सिंह को गिरफ्तार करके जेल पहुँचाया था। दूसरे क्रांतिकारियों के गुप्त रहस्यों का पता लगाने के लिए पुलिस ने भगत सिंह को तरह-तरह की यातनाएँ दीं। वे उन्हें कांटेदार चाबुक से पीटते थे और भाले से उनकी देह को छेदते थे किन्तु भगत सिंह ने अपना मुँह नहीं खोला। पुलिस उनसे कोई रहस्य नहीं जान सकी।
अन्त में एक मैजिस्ट्रेट ने यह फैसला दिया कि 60 हजार रुपये की जमानत देने पर भगत सिंह को रिहा किया जा सकता है। इतनी बड़ी जवाबदारी कौन ले सकता है किंतु भगत सिंह के प्रतिस्नेह के कारण दो धनवान व्यक्ति आगे आये। वे थे दुनीचन्द और दौलतराम। उनकी जमानत पर भगत सिंह रिहा किये गये।
यदि जमानत की अवधि में भगत सिंह क्रांतिकारी हलचलों में भाग लेते तो उन दोनों धनी व्यक्तियों को सरकारी खजाने में 60 हजार रुपये नगद जमा कराने पड़ते। भगत सिंह ने इस बात को पसंद नहीं किया कि उनकी वजह से दूसरों को मुसीबत में पड़ना पड़े। इसीलिए जमानत की अवधि तक उन्होंने शान्त रहने का निश्चय किया। उन्हीं दिनों उनके पिताजी ने उनके लिए गाँव में कुछ गायें पाल लीं जिससे कि भगत सिंह एक छोटी-सी डेयरी (दुग्धशाला) चला सकें। भगत सिंह ने उस काम को पसंद किया और खूब लगन से उसमें जुट गये।
वे प्रतिदिन सबेरे चार बजे सोकर उठ जाते थे। फिर गौओं को चारा-पानी देते, गोबर हटाते और गौओं के बाड़े को खूब साफ करते थे। उसके बाद वे उन गायों को दुहते और उनका दूध बेचते थे। यह सब व्यवस्थित ढंग से होता था और खूब स्वच्छता रखी जाती थी। भगत सिंह जो भी काम करते थे, उसे वे बहुत ही श्रेष्ठ और सन्तोषजनक ढंग से किया करते थे।
पूरे दिन वे अपनी डेयरी में व्यस्त रहा करते थे। किन्तु रात आती और उनके दिमाग में क्रांति के विचार जोर पकड़ लेते थे। वे अपने दोस्तों से क्रांति की चर्चा करते रहते थे। उन्हीं दिनों उन्होंने 'कीर्ति' और ' अकाली' नामक अखबारों से सम्पर्क स्थापित कर लिया और उनमें छपने के लिए लेख लिखने लगे। एक अखबार ने देश की खातिर फाँसी पर झूल गये शहीदों का सम्मान करने के लिए एक विशेषांक निकाला। उसमें भगत सिंह के कुछ क्रांतिकारी का परिचय देते हुए लिखा
दशहरा बम केस जिसमें भगतसिह को समेट लिया गया था, अभी अदालत में चल ही रहा था। आखिर उस मुकदमे का फैसला हुआ और भगत सिंह रिहा कर दिये गये। अब वे अमानत से मुक्त थे। बस, फिर क्या था ? भगत सिंह ने तुरन्त अपनी वह डेयरी बन्द कर दी और क्रांतिकारियों की एक बैठक में शामिल होने के बाद भगत सिंह फिर कभी घर नहीं लौटे।
येरवड़ा जेल मे भगत सिंह का वीर सावरकर से मिलाप
वीर सावरकर ही वो इन्सान थे जिनके कहने पर भगत सिंह की मुलाक़ात चन्द्रशेखर आजाद जी से हुई थी। वीर सावरकर से भगत सिंह ने क्रांति और देशभक्ति के पथ पर चलने के कई गूढ रहस्य सीखे। चन्द्रशेखर आजाद के दल मे शामिल होने के बाद कुछ ही समय मे भगत सिंह उनके दल के प्रमुख क्रांतिकारी बन गए।
भगत सिंह और उनके दल का “लाला लाजपतराय” की मौत का बदला
दिल्ली में एक युवा क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद का भगत सिंह से परिचय कराया गया। यह मुलाकात वैसे ही हुई जैसे अग्नि और वायु एक-दूसरे से मिल जाये। क्रांतिकारियों की हलचल और भी ज्यादा बढ़ गई। उनमें एक नई शक्ति आ गई। भगत सिंह ने अपनी दाढ़ी मुंडवा ली और सिर के बाल बहुत छोटे करवा लिए जिससे कि पुलिस उन्हें पहचान न सके। अब तक वे सिक्खों के एक वीर थे, अब वे राष्ट्रीय वीर पुरुष बन गये।
उन दिनों "हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ" नामक एक क्रान्तिकारी दल था जिसका नाम बदलकर "हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ" कर दिया गया। सशस्त्र विद्रोह द्वारा भारत में प्रजातंत्र की स्थापना करना इस संघ का उद्देश्य था।
जब कोई बम जमीन पर फेंका जाता है, उसके विस्फोट से जोरदार धमाका होता है और आस-पास की हर वस्तु नष्ट हो जाती है। ऐसे क्रांतिकारियों को, अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए ऐसे असंख्य बमों की ज़रूरत थी यह है किंतु इतनी बड़ी संख्या बम होने कहां से मिल सकते थे ? भगत सिंह बम बनाना सीखने के लिए कलकत्ता गये। उन्होंने वहाँ आवश्यकतानुसार बहुत से बम खरीद लिए। भगत सिंह ने सुप्रसिद्ध बंगाली क्रांतिवीर जतीन्द्रनाथ दास से बम बनाना भी सीख लिया।
सन् 1928 में इंग्लैंड से एक कमेटी भारत आई। यह सायमन कमीशन के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस कमीशन का उद्देश्य यह निश्चित करना था कि भारत की जनता को किस हद तक स्वतंत्रता और जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। किंतु उसका एक भी सदस्य भारतीय नहीं था। स्वाभाविक रूप से भारत के लोग इससे बहुत ज्यादाफरवरी नाराज हो गये। उन्होंने यह निश्चय किया कि इस कमीशन का काम करना एकदम असंभव बना दिया जाये। भारतीय जनता ने यह तय किया कि इस कमीशन को वापस इंग्लैंड जाने के लिए एकदम विवश कर दिया जाये।
जब सायमन कमीशन अक्टूबर में लाहौर पहुँचा तब उसे वहाँ एक बड़े जुलूस के विरोध का सामना करना पड़ा। “नवजवान भारत सभा" ने उस जुलूस का आयोजन किया था। हजारों लोगों ने उस जुलूस में भाग लिया। उसके नेता थे बुजुर्ग देशभक्त लाला लाजपतराय। रेलवे स्टेशन से ही कमीशन के लिए भारी अड़चन पैदा हो गई। क्रांतिकारियों ने सायमन कमीशन को आगे नहीं बढ़ने दिया। पुलिस उसके सदस्यों की रक्षा नहीं कर सकती थी। उस समय स्कॉट नाम के एक पुलिस सुपरिन्टेंडेंट ने लाठीचार्ज का आदेश दे दिया। पुलिस ने लाठियों से लोगों को पीटना शुरू कर दिया। इससे लोग भागने लगे। किन्तु लाला लाजपतराय और उनके साथी लोग वहाँ से बिल्कुल नहीं हटे। तब एक पुलिस सार्जेट जिसका नाम सांडर्स वह दौड़कर आगे बढ़ा और उसने लाला लाजपतराय की छाती पर बेतों से प्रहार किया। बहुत जोरदार चोट लगी। लाजपतराय बूढ़े थे और उन दिनों बीमार थे। छाती पर हुए प्रहार से वे मरणासन्न हो गये। एक महीने तक भारी कष्ट झेलकर वे स्वर्गवासी हुए।
उनके देहान्त के कारण क्रांतिकारियों की जबरदस्त हानि हुई। उन्होंने निश्चय किया कि वे लाला जी की मौत का बदला लेंगे और स्कॉट को मार डालेंगे। जिसने लाठी-चार्ज का आदेश दिया था। उन्होंने एक योजना सोची। जयगोपाल नामक एक क्रांतिकारी के जिम्मे यह काम सौंपा गया कि वह स्कॉट की हलचलों पर निगाह रखे। भगत सिंह और राजगुरु को यह काम सौंपा गया कि वे स्कॉट को गोली मार दें और अन्य क्रांतिकारी होशियारी से इन दोनों को बच निकलने में मदद करें। चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में यह पूरी योजना बनाई गई थी।
किन्तु प्रारंभ में ही एक गलती हो गई। जयगोपाल ने सांडर्स को स्कॉट समझ लिया।
निश्चित दिन आ गया। उस शाम को सांडर्स पुलिस थाने से बाहर निकला और अपनी मोटर साइकिल पर सवार हो गया। जयगोपाल ने उसके पीछे से इशारा किया। भगत सिंह और राजगुरु रास्ते में उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही मोटर साइकिल नजदीक पहुँची, राजगुरु ने अपनी पिस्तौल से सांडर्स पर गोली चला दी। फौरन भगत सिंह ने भी उस पर गोली दाग दी। जिस आदमी ने लाला लाजपतराय की छाती पर मोटे बेंत से प्रहार किया था, उसकी छाती में एक गोली धंस गई और सांडर्स वहीं गिरकर मर गया। भगत सिंह और राजगुरु तेजी से वहाँ से दौड़ चले। पुलिस ने उनका पीछा किया। वे दोनों नजदीक के एक लॉज में घुस गये और वहां से चुपचाप निकल भागे
सांडर्स के मारे जाने की खबर सारे शहर में फैल गई और पुलिस के जासूसों ने उसकी हत्या करने वालों को खोजने के लिए शहर भर में छानबीन शुरू कर दी।
दूसरे दिन लाहौर की सभी सड़कों के किनारे दीवारों पर पोस्टर्स चिपके हुए दिखाई दिये। उन पर लिखा था—“लाला लाजपतराय की मौत का बदला ले लिया गया। सांडर्स मारा गया।" इसके साथ ही सरकार के लिए चेतावनी के कुछ शब्द थे। पोस्टरों पर “हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना' का नाम लाल अक्षरों में अंकित था। इसलिए सभी को यह पता चल गया कि सांडर्स के खून के पीछे किन लोगों का हाथ था। क्रांति दल के प्रति जनता के हृदय में सम्मान बढ़ गया। सांडर्स की हत्या ने ब्रिटिश सरकार को हिला दिया।
भगत सिंह, राजगुरु और चन्द्रशेखर ये तीनों लाहौर से बच निकले। भगत सिंह ने एक विदेशी युवक का वेश बनाया और सिर पर हैट पहन ली, दुर्गा भाभी, जो एक क्रांतिकारी भगवतीचरण की पत्नी थीं और उनका बच्चा भगत सिंह के साथ में थे। ऐसा दिखाने की कोशिश की गई कि उस युवक (भगत सिंह) के साथ उनकी पत्नी और बच्चा भी है। इन तीनों ने ट्रेन के एक प्रथम श्रेणी के डिब्बे में सफर किया। राजगुरु एक साधारण कर्मचारी के रूप में लाहौर से बाहर निकल भागे। आजाद एक पंडित का भेष बनाकर ट्रेन में बैठ गये। रेलवे स्टेशन गिद्धदृष्टि वाले खुफिया पुलिस के लोगों से भरा पड़ा था किन्तु ये तीनों क्रांतिकारी उनकी आँखों में धूल झोंककर साफ बच गाय
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त का दिल्ली की केन्द्रीय एसम्ब्ली मे बम फेंकना
पुलिस भगत सिंह और राजगुरु को ढूंढती ही रही किंतु उन्हें पकड़ न सकी। इस तरह तीन महीने बीत गये।
अप्रैल 1929 में सेंट्रल असेंब्ली का अधिवेशन दिल्ली में हो रहा था। ब्रिटिश सरकार उस सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंब्ली के समक्ष दो ऐसे विधेयक पेश करना चाहती थी, जिनसे इस देश के हितों को नुकसान पहुँचने की संभावना थी। यदि असेंब्ली उन्हें नामंजूर भी कर देती तो वायसराय अपने विशेष अधिकारों का उपयोग करके उन्हें अपनी स्वीकृति दे देता और वे दोनों कानून बन जाते। "हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र दल” ने इस तरह की साजिश को रोकने का निश्चय किया।
लाहौर की जनता को पुलिस ने बहुत सताया। “हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना" ने तय किया कि अब ऐसी बात दुबारा नहीं होने देनी चाहिए। क्रांतिकारियों को अंग्रेजों का खुला विरोध करते हुए अपने को गिरफ्तार करवाना चाहिए। प्रजातंत्र सेना के उद्देश्यों को समूचे देशभर की जनता तक पहुँचाने के लिए उन्हें हर तरह से कोशिश करनी है। यह लक्ष्य ध्यान में रखकर 'सेना' ने भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को दिल्ली भेजने का निश्चय किया।
उन दोनों को वहाँ जाकर लेजिस्टेटिव असेंबली में बम फेंकने और गिरफ्तार होने का आदेश मिला। उसके लिए ऐसे दो बम बनाये गये जो हानिकारक नहीं थे। सन् 1929 की 8 अप्रैल की तारीख को दो व्यक्ति अपने साथ बमों को लेकर असेंबली हॉल में प्रवेश कर गए वह विजिटर गैलेरी (दर्शकों की दीर्घा) में जाकर बैठ गये। असेंब्ली की कार्यवाही आरंभ हुई। सरकार द्वारा वे दो विधेयक असेंबली के समक्ष प्रस्तुत किये गये। सदस्यों ने उन्हें नामंजूर कर दिया। अन्त में सरकार के एक सदस्य ने घोषणा की कि वायसराय ने अपने विशेषाधिकारों का उपयोग करके उन विधेयकों को कानून बना दिया है। ठीक उसी वक्त ऊपर से एक बम गिरा और भयंकर विस्फोट हुआ, उसके तत्काल बाद दूसरा बम भी गिरा। गोली चलने की भी आवाजें सुनाई दी। असेंब्ली का समूचा हाल धुंए से भर गया। लोग इधर-उधर भागने लगे। कुछ तो इतना डर गये थे कि उन्हें बेहोशी आ गई। तब तक दर्शकों की गैलरी से लाल रंग के पर्चे गिरे। उनमें प्रजातन्त्र सेना के बारे में जानकारी थी और सरकार की निन्दा की गई थी। असेंब्ली का हाल 'क्रांति अमर रहे' के नारे से गूंज रहा था।
पुलिस तेजी से घटनास्थल पर पहुँच गई। वहाँ केवल भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ही मौजूद थे। उनके हाथों में पिस्तौलें थीं। उनसे डरकर पुलिस पीछे हट गई किन्तु दोनों क्रांतिकारियों ने अपनी पिस्तौलें नीचे गिरा दीं और हथकड़ियाँ पहन लीं।
असेंबली हाल में फेंके गये बमों से कोई नहीं मरा। चार या पाँच व्यक्तियों को मामूली चोटें आई, बस! क्रांतिकारियों का इरादा किसी की हत्या करने का नहीं था। इस घटना ने समूचे विश्व का ध्यान आकर्षित किया। 'क्रांतिदल' का नाम घर-घर में पहुँच गया। ब्रिटिश सरकार काँपने लगी।
उस घटना के बाद सरकार को लाहौर की बम फैक्टरी का पता गुप्त रूप से चल गया। सरकार ने वहाँ से इतना विस्फोटक मसाला जब्त किया कि जिससे 7000 बम बनाए जा सकते हैं सहारनपुर में एक दूसरी बम फैक्टरी सरकार द्वारा ढूंढ निकाली गई। कुछ ही दिनों के भीतर क्रांति दल के अधिकांश नेता गिरफ्तार कर लिये गये। सरकार ने उनके विरुद्ध मुकदमा दायर किया जो लाहौर षडयंत्र-केस के नाम से प्रसिद्ध है। भगत सिंह और उनके साथियों को लाहौर जेल में बन्द रखा गया।
भगत सिंह और काकोरी कांड
काकोरी कांड के आरोप मे गिरफ्तार हुए तमाम आरोपीयो मे से चार को मृत्यु दंड की सजा सुनाई गयी और, अन्य सोलह आरोपीयो को आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इस खबर ने भगत सिंह को क्रांति के धधकते अंगारे मे बदल दिया। और उसके बाद भगत सिंह ने अपनी पार्टी “नौजवान भारत सभा” का विलय “हिंदुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन”कर के नयी पार्टी “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन”का आहवाहन किया।
भगत सिंह की कुछ विशेष क्रन्तिकारी गतिविधियांk
.काकोरी काण्ड में क्रांतिकारियों को फांसी और कारावास दिए जाने के कारण Bhagat Singh ने अपनी पार्टी नौजवान भारत सभा का “ हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन” में विलय कर दिया जो चन्द्रशेखर आजाद की पार्टी थी और उन्होंने उसे नया नाम दिया “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” |
. Bhagat Singh ने 17 सितम्बर 1928 को ए० एस० पी० सॉण्डर्स जो कि एक अधिकारी था उसे Bhagat Singhने अपनी योजना के अनुसार राजगुरु , चन्द्रशेखर आजाद और जयगोपाल के साथ मिलकर हत्या करके लाला लाजपत राय की हत्या का प्रतिशोध लिया क्योंकि साइमन कमीशन के विरोध में हो रहे प्रदर्शन में लाला लाजपत राय की लाठीचार्ज में हत्या कर दी गयी थी |
. 8 अप्रेल 1929 को Bhagat Singh ने उस समय की ब्रिटिश संसद जो नयी दिल्ली में थी में बम फेंककर अपने विरोध को जताया | हालाँकि वो चाहते तो हमले की तरह इस घटना को अंजाम दे सकते थे लेकिन उन्होंने इसकी बजाय संसद की बीच की जगह जन्हा कोई नहीं था वंहा बम फेंककर अपने विरोध को जताया और भागने की बजाय गिरफ्तारी दे दी |
. ब्रिटिश संसद भवन में बम फेंकने के लिए Bhagat Singh और बटुकेश्वर दत का नाम चुना गया था |
हालाँकि संसद में बम फेंकने के बाद इन पर जो
. हालाँकि संसद में बम फेंकने के बाद इन पर जो आरोप थे उनके हिसाब से इन्हें आजीवन कारावास की सजा हुई थी लेकिन भगत सिंह , राजगुरु और सुखदेव के ऊपर सांडर्स को मारने के आरोपो को सही पाया गया जिसकी वजह से इन्हें फांसी की सजा दी गयी ।
भगत सिंह और उनके साथियों के जेलवास के दौरान भूख हड़ताल
भगत सिंह ने अपने तकरीबन दो साल के जेल-कारावास के दौरान कई पत्र लिखे थे। और अपने कई लेख मे पूंजीपतियों की शोषण युक्त नितियों की कड़ी निंदा की थी। जेल मे कैदीयो को कच्चे-पके खाने और अस्वछ निर्वास मे रखा जाता था। भगत सिंह और उनके साथियो ने इस अत्याचार के खिलाफ आमरण अनशन – भूख हड़ताल का आहवाहन किया। और तकरीबन दो महीनों (64 दिन) तक भूख हड़ताल जारी रखी। अंत मे अंग्रेज़ सरकार ने घुटने टेक दिये। और उन्हे मजबूर हो कर भगत सिंह और उनके साथियो की मांगे माननी पड़ी। पर भूख हड़ताल के कारण क्रांतिकारी यातींद्रनाथ दास शहीद हो गए।
भगत सिंह और उनके दोनों साथी राजगुरु और सुखदेव को फांसी
अभियुक्तों के विरुद्ध अदालत में सुनवाई शुरू हुई। उन दिनों राजनैतिक बन्दियों के साथ जेल में उचित व्यवहार नहीं किया जाता था। उन्हें ठीक भोजन नहीं मिलता था। उन्हें हर तरह से सताया जाता था। भगत सिंह और उनके साथियों ने वैसी शर्मनाक हालत के खिलाफ लड़ने का निश्चय किया। भगत सिंह की यह पक्का विश्वास था कि उन्हें फाँसी होगी लेकिन उन्होंने सोचा कि अन्य राजनैतिक बंदियों को फायदा पहुँचे। सभी क्रांतिकारी अनशन पर बैठे। तब सरकार ने कहा कि वह उनकी माँगों पर विचार करेगी। कुछ क्रांतिकारियों ने अनशन त्याग दिया किन्तु जतीन दास ने अनशन नहीं त्यागा। उन्होंने किसी की नहीं सुनी। अनशन के 64 वें दिन उन्होंने शरीर त्याग दिया। उसके बाद भगत सिंह ने 32 दिनों तक अनशन किया।
भगत सिंह और उनके सहयोगियों के विरुद्ध मुकदमा शुरू हुआ। उस मुकदमे ने समूचे विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा। अदालत में पुलिस का बहुत बड़ा पहरा रहता था। अदालत के कमरे में किसी भी दर्शक को प्रवेश की अनुमति नहीं मिलती थी। बन्दियों को हथकड़ी-बेड़ी में अदालत में लाया जाता था। वे ' क्रांति अमर रहे' का नारा जोर से लगाते थे और उसके बाद अदालत में प्रवेश करते थे ।
यदि बहरे सुन सकें तो उसके लिए आवाज बहुत ही जोरदार होनी जरूरी है। हमने जब बम गिराया तब हमारा इरादा किसी की हत्या करने का नहीं था। हमने तो ब्रिटिश सरकार के ऊपर बम फेंका है। अंग्रेजों को भारत छोड़कर चले जाना चाहिए, ताकि हमारा देश स्वतन्त्र हो सके।" उन्होंने अपने संघ के कार्यकलापों व उद्देश्यों की भली प्रकार से प्रेस रिपोर्ट तैयार की जिसके द्वारा जानकारी हासिल हो गई ।
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बयान दिया- । अंत में अदालत ने निर्णय सुना दिया। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फाँसी की सजा दी गई। कुछ को आजीवन कारावास भोगना था और अन्य को पाँच साल, सात साल और दस साल तक की कड़ी कैद की सजा सुनाई गई।
भगत सिंह को फाँसी दी जाने वाली थी। जब यह खबर फैली तो देशभर में जनता क्षुब्ध हो उठी। सरकार के पास हजारों अपीलें भेजी गई—उन सबमें यह अनुरोध किया गया था कि भगत सिंह को फाँसी न दी जाये। सार्वजनिक जीवन के बहुत से नेताओं ने इन अपीलों का समर्थन किया। किन्तु सभी प्रयत्न असफल रहे। सरकार ने यह निश्चय किया कि 24 मार्च सन् 1931 को उन तीनों को फाँसी दे दी जायेगी। उनके परिवारजनों तक को उनसे भेंट करने की अनुमति नहीं दी गई। यहाँ तक कि उन तीनों वीरों भगत सिंह, सुखदेव