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कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाये है मुझ से

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कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझ से
जफ़ायें[1] करके अपनी याद शर्मा जाये है मुझ से

ख़ुदाया! ज़ज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर[2] उलटी है
कि जितना खैंचता हूँ और खिंचता जाये है मुझ से

वो बद-ख़ू[3], और मेरी दास्तान-ए-इश्क़ तूलानी[4]
इबारत[5] मुख़्तसर[6], क़ासिद[7] भी घबरा जाये है मुझ से

उधर वो बदगुमानी[8] है, इधर ये नातवानी[9] है
ना पूछा जाये है उससे, न बोला जाये है मुझ से

सँभलने दे मुझे ऐ नाउम्मीदी, क्या क़यामत है
कि दामन-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाये है मुझ से

तकल्लुफ़ बर-तरफ़[10], नज़्ज़ारगी[11] में भी सही, लेकिन
वो देखा जाये, कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझ से

हुए हैं पाँव ही पहले नवर्द-ए-इश्क़[12] में ज़ख़्मी
न भागा जाये है मुझसे, न ठहरा जाये है मुझ से

क़यामत है कि होवे मुद्दई[13] का हमसफ़र "ग़ालिब"
वो काफ़िर[14], जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझ से

शब्दार्थ:
  1. अत्याचार
  2. प्रभाव
  3. बदमिजाज़
  4. लंबी
  5. वर्णन
  6. संक्षिप्त
  7. संदेशवाहक
  8. संदेह
  9. कमज़ोरी
  10. साफ, सीधी बात,औपचारकिता को एक तरफ रख कर
  11. दर्शन
  12. प्यार की लड़ाई
  13. दावा करने वाला
  14. यहाँ इस का मतलब - प्रिय
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