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निरशून्य गगनीं अर्क उगवला...

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निरशून्य गगनीं अर्क उगवला । कृष्णरूपें भला कोंभ सरळु ॥१॥

तें रूप सुंदर गौळियांचे दृष्टी । आनंदाचि वृष्ट्सी नंदाघरीं ॥२॥

रजतमा गाळी दृश्याकार होळी । तदाकार कळी कृष्णबिंबें ॥३॥

निवृत्ति साकार शुन्य परात्पर । ब्रह्म हें आकार आकारलें ॥४॥

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