Bookstruck

द्वितीय सर्ग: भाग-2

Share on WhatsApp Share on Telegram
« PreviousChapter ListNext »

प्रेम

नृपद्वार कुमारि चलीं पुर की, ऍंगराग सुगंधा उड़ै गहरी,
सजि भूषण अंबल रंग बिरँग, उमंगन सों मन माहिं भरी।
कवरीन में मंजु प्रसून गुछे, दृगकोरन काजर लीक परी,
सित भाल पै रोचनबिंदु लसै, पग जावक रेख रची उछरी।

चलि कुँवर आसन पास सों मृदु मंद गति सों नागरी,
हैं कढ़ति कारे दीर्घ नयन नवाय भोरी छवि भरी।
बढ़ि राजतेजहु सों कछू तहँ हेरि ते हहरैं हिये,
जहँ लसत कुँवर विराग को मृदु भाव आनन पै लिये।

जो निकसै अति रूपवती, सब लोग सराहत जाहि दिखाय
सो चकि कै हरिनी सी खड़ी चट होय कुमार के सम्मुख आय-
दिव्य स्वरूप, महामुनि सो सब भाँति अलौकिक जो दरसाय-
लै अपनो उपहार मिलै पुनि कंपित गात सखीन में जाय।

पुर की कुमारी एक पै चलि एक यो पलटी जबै,
टूटयो छटा को तार औ उपहार हू बँटिगो सबै
ठाढ़ी भई तब आय कुँवर समीप दिव्य यशोधरा
अति चकित हेरत रहि गयो सो स्वर्ग की सी अप्सरा।

मृदु आनन पै लखि इंदुप्रभा अरबिंद सबै सकुचाय परे
शर हेरि प्रसून के नैनन में हरिनीन के नैनहु ना ठहरे।
पुनि जोरि कुमार सों दीठि चितै मुसकान कछु अधारान धारे
"कछु पाय सकैं हमहूँ" यह पूछति भौहँन में कछुभाव भरे।

सुनि कहत राजकुमार "अब उपहार तो सब बँटि गयो,
पै देत हौं जो नाहिं अब लौं और काहू कों दयो"
चट काढ़ि मरकत माल वाके कंठ में नाई हरी,
तहँ नयन दोउन के मिले जिय प्रीति जासों जगि परी।

बहुत दिनन में भए बुद्ध पद प्राप्त कुँवर जब
बिनती करि बहु लोग जाय तिनसों पूछयो तब
क्यों सहसा लखि गोपा को यों ढरयो तासु चित'
कह्यो बुद्ध 'हम रहे परस्पर नाहिं अपरिचित।

बहुत जन्म की बात सुनौ जमुना के तट पर,
नंदादेवी को सोहत जहँ धावल शिखर वर,
एक अहेरी को कुमार मन मोद बढ़ाई।
वनकन्यन के संग रह्यो खेलत तहँ जाई।

बन्यो पंच सो, ताहि प्रथम चलि छुवन विचारी
देवदार तर दौरैं हरिनी सरिस कुमारी।
बनजूही सों देत काहु को भाल सजाई,
नीलकंठ के पंख काहु को देत लगाई,

औ गूंजा की माल काहु के गर में नावत,
काहू को चुनि देवदार के दल पहिरावत।
दौरी पाछे जो सबके सो आगे आई,
मृगछौना दै एक ताहिं सों प्रीति लगाई,

सुख सों दोऊ रहे बहुत दिन लौं बन माहीं,
बंधो प्रीति में दोउ अभिन्न मन मरे तहाँहीं।
देखौ! जैसे बीज भूमि तर ढको रहत है,
फोरत अंकुर वर्षा की जब धार लहत है,

याही विधि सब कर्मबीज पहले के भाई-
राग द्वेष, सुख दु:ख, भलाई और बुराई-
प्रगटत है पुनि जब कबहूँ ते अवसर पावैं,
औ मीठे वा कड़वे फल निज डारन लावैं।

सोइ अहेरी को कुमार मोको तुम मानौ,
है यशोधरा सोइ चपल वनकन्या, जानो।
जन्म मरण को चक्र भयौ जौ लौं नहि न्यारे,
आवन चाहै, रही बात जो बीच हमारे।"

रहे कुँवर को भाव लखत जो उत्सव माहीं
जाय सुनायो नृप को सब, कछु छाडयो नाहीं।
कैसे कुँवर विरक्त रह्यो बनि बैठो तौ लौं
सुप्रबुद्ध की यशोधरा आई नहिं जौ लौं।

पलटयो कैसा रंग कुँवर को ज्यों सो आई,
निरखन दोऊ लगे परस्पर दीठि मिलाई।
रत्नहार दैबे की सारी बात गए कहि,
रहे प्रेम सों एक दूसरे को कैसे चहि।

« PreviousChapter ListNext »