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में किताब हूँ

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"में किताब हु"

लेखक - राम लोहार

  में किताब हु ,मुझे बोलना तो नही आता फिर भी मुझे लाखो लोग समझ जाते है।मेरी कोई बड़ी पदवी तो नही है किन्तु मेरी सहायता के बिना बड़ा पद नही पाया जा सकता ,मुझे इस बात का गर्व है की मेरी आत्मा मेरे शब्दों में बसती है।मेरे शब्द मुझे शिखरों पर ले जाते है और में मेरे पाठको को शिखरों की सेज पर बिठाती हु ।मेरा जीवन काल मेरे पन्नों में विराजता है,मेरा प्रथम पन्ना मेरे जीवन का सूचक है तो मेरा अंतिम पन्ना मेरी मृत्यु की सुचना देता है।मेरी आशिकी भी ला जवाब है।

  मेरा पाठक यदि मुझ में रम जाये तो मेरी खातिर संसार को भूल जाता है।में भी अपनी वफ़ा का मतलब उसे सफलता के शिखर पर पहुँचा कर बताती हु। मेरी बेवफाई भी  कम नही है,जो पाठक मुझे भुला देता है वह न केवल मेरी बातो से अछूता रह जाता है बल्कि वह समाज में बिछड़ जाता है।
  मेरी कहानी तो बहुत रोमंचो से भरी है । हर कोई ऊपर उठने के लिए मेरा ही सहारा लेता है,चाहे वो छात्र हो या शिक्षक हर किसी के जीवन में मेरी उपस्थिति निहित है।
   मुझे समझना आसान है पर इतना भी नही की हर कोई मुझे समझ ले मेरा जन्म से अंत तक स्मरण करने वाला विद्धवान होता है या फिर मेरा स्मरण करने के बाद में उसे विद्धवान बना देती हु।
    में पाठको के जीवन में तब से आ जाती हु जब वे पहली बार पड़ने लगते है।
और सम्पूर्ण जीवन उनके साथ बनी रहती हु।
  जिस प्रकार मनुष्यो में जातियो तथा वर्णों के भेद होते है उसी प्रकार मेरे भी भेद  होते है किन्तु मनुष्यो की भाँति ही मेरी भी आत्मा एक ही है।
   में अपने आप में पूर्ण हु और मुझे मेरे बनाने वाले ने किसी मुख्य उदेश्य से ही बनाया है।
मेरा जीवन तब तक सफल नही कहा जा सकता जब तक में पाठको तक मेरा उदेश्य न पहुँचा दू।
    तब ही मेरी पहचान ओरो के सामने जाया होती है जब में अपने उदेश्य में पूर्ण हो जाती हु।
     एक पाठक बंधू मुझे अन्य के सामने तब ही जाया करता है।जब उसे मेरा पूर्ण ज्ञान हो जाता है वो मुझ में और में उस में निहित हो चुके होते है। किन्तु कभी-कभी मुझे खेद होता है जब पाठक मुझे किसी प्रकार आधा अधूरा समझकर बिच में ही छोड़ देते है। यह मेरी असफलता होती है।किन्तु इस असफलता में मेरी जितनी भूमिका होती है उतनी ही मेरे बनाने वाले(लेखक) की भी होती है। में तो बदनाम होती ही हु किन्तु मेरे बनाने वाले भी बदनाम होते है।इस दुःख के पल में वे याद आते है जिन्होंने मुझे समझा है।
        में ज्ञानी तो नही हु किन्तु मुझमे ज्ञान का अपार भंडार भरा है ।मेरे सृजन मात्र से जीव ,बुद्धि जीवी हो जाता है में कोई राह नही हु किन्तु मेने कहियो को राह दिखाई है ।मेने उस हर भटकते को रास्ता दिखाया ,जिसने मेरी ऊँगली थामी है। मेरी चाहत बस इतनी नही है की पाठक मुझे समझे में चाहती हु की पाठक मुझे समझकर एक नया रूप प्रदान करे।
    में कोई ब्रांड नही हु किन्तु मेने जा जाने कितनो को ब्रांडडेड बना दिया है।मेरा यदि कोई सचे साथी की तरह साथ देता है तो में भी अपनी गरिमामय मित्रता निभाती हु ।
संसार की हर चीज मुझ से ही शुरू होती है और मुझ में ही अंतमय हो जाती है ।मेरा अभिप्राय यह है की संसार की हर वस्तु मुझ ने ही निहित है और मुझ में ही अविरल संसार के जितने भी वेद ,पुराण है वे सब मेरे ही रूप है।मेरा अंत होकर भी अंत नही होता है।में हर बार बदलती रहती हु में न शिर्फ़ खुद बदलना जानती हु अपितु संसार को बदलना भी मुझे भली प्रकार आता है।
   संसार में जितने भी गूढ़ रहस्य है सारे मुझ में ही समाये है चाहे आप उसे गीता कहे या कुरान सब मेरे ही रूप है ।बड़ा से बड़ा रहस्य तब ही उजागर होता है जब में अपने आप को प्रस्तुत करती हु,अन्यथा सर्वत्र रहस्य मेरे ही आँचल में समाये रह जायेगे।कोई उन्हें जान ही नही पायेगा आप ही सोचिये जो आज आप को अतीत के बारे में ज्ञात है, वो सब मुझ से ही अवत्रित है चाहे वो गीता,कुरान ,बाइबल या वेदों के रूप में ही क्यों ना हो किंतु हर बात का अध्यन आप मेरे ही कारण कर पाते है।
   मुझे भी मानवो की ही तरह पदों पर सुसर्जित किया गया है ।मुझे भी कहि किताब कहा गया तो कही उपन्यास कहि काव्य कहि महाकाव्य तो कहि मुझे ग्रंथ कहा गया है।ये आप के बनाये गए भेद है,जो मेरी आयु के अनुसार और मेरी आत्मा की पवित्रता के अनुसार आप ने बना दिए है।में तो बस किताब हु किताब हु किताब हु

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