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Cover of बूढ़ा बरगद

बूढ़ा बरगद

by Journalist by profession & Writer by passion.

मुझे याद है कि बाबा और मैंने अपने घर के आंगन में बरगद का पौधा लगाया था। बाबा ने मिट्टी में गड्ढा खोदा था फिर गड्ढे के ठीक बीचो बीच बाबा ने पौधे को रख मुझसे उसमे पानी डालने को कहा था। मैंने भी बड़ी उत्सुकता के साथ पौधे में पानी लगाया था। उस दिन के बाद से उसके विशालकाय पेड़ बनने तक मैं रोज नियम से उसमें पानी डालता, उसकी देखभाल करता। वो सिर्फ पौधा नही, मेरे बचपन का साथी बन गया था। स्कूल जाने से पहले उसमे पानी डालना, थोड़ी देर उसके पास बैठकर उससे बातें करना और स्कूल से लौटने पर शाम को दोबारा इसी क्रम को दोहराना मेरी आदत में शुमार हो गया। बाबा ने पौधा क्या लगाया मैंने तो गर्मियों की छुट्टियों में नानी के घर जाना ही छोड़ दिया। घंटो बरगद से बात करना उसे अपनी दिनचर्या बताना और हवा से टकरा कर उससे लौट के आने वाली आवाज को सुनना, जैसे मानो वो मुझे जबाव दे रहा हो। ज्यूँ ज्यूँ पौधा बढ़ रहा था त्युं त्युं मेरी भी उम्र बढ़ रही थी। इस बीच मेरी और उसकी दोस्ती गहराती जा रही थी या यूं कहें कि वो मेरी और मैं उसकी रूह में बस गए थे। वो मेरे जीवन का सबसे अच्छा और प्यारा साथी बन गया था। अब मैं वयस्क हो गया हूं, बरगद भी एक विशालकाय पेड़ का रूप धारण कर चुका है। घर के आंगन में लगा बरगद अब आंगन को छोटा कर रहा है। जो कल तक बहुत प्यारा और अजीज था आज वो आंखों को अखरने लगा है। आंगन में जमीन पर गिरे उसके सूखे पत्ते अब किसी गन्दगी की तरह लगने लगे हैं। घर की सुंदरता में वो दाग सा लगने लगा है, घर को बड़ा करने के लिये उसका कटना जरूरी हो चला। मैं सब कुछ भूल चुका हूं, घर को बड़ा करना मेरी सबसे बड़ी जरूरत हो गयी। मैंने समय न गंवाते हुए पेड़ काटने वाले दो लोगों को बुलवा लिया। कुल्हाड़ी के साथ आये दोनो पेड़ की टहनी टहनी काटने को आतुर हैं, मैं भी घर के विकास में अंधा हो गया हूँ। पेड़ से टकरा कर आने वाली हवा, जो मुझे चीख-चीख कर खुद को बचाने की फरियाद तो कर रही है लेकिन विकास का शोर, मुझे बरगद की आवाज को सुनने नही दे रहा है। शायद अब मुझे उसकी आवाज सुनाई ही नही दे रही है। मैंने लंबी सांस भरकर दोनो को पेड़ को काटने का हुक्म दिया। मेरे हुक्म की प्रतीक्षा में खड़े दोनो ने पल भर की देरी किये बगैर पेड़ पर कुल्हाड़ी चला दी जैसे ही कुल्हाड़ी पेड़ को छुई वैसे ही मेरे सीने में भी तेज दर्द उठा। मानो वो कुल्हाड़ी पेड़ पर नही बल्कि मेरी छाती में जा धंसी हो। कुल्हाड़ी के हर वार के साथ मेरा दर्द तेज हो रहा है। इधर मेरा दर्द बड़ रहा है, उधर पेड़ पर चल रही कुल्हाड़ी पेड़ को एक ओर झुका रही है। पेड़ पर पड़ी अंतिम कुल्हाड़ी ने पेड़ को गिरा दिया, वहीं सीने का असहनीय दर्द मेरे प्राणों को लेकर हवा हो चला। अब पेड़ और मैं दोनो ही घर के आंगन की जमीन पर पड़े हैं। जैसे मानो सच में हम दोनों की रूह एक दूसरे में बसती थी और जो अब विकास की रेस में दुनिया ही छोड़ गई हो। हां मैं विकास जो उस आंगन के कोने में अकेला खड़ा सिसकियां ले रहा हूं!

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