Bookstruck

व्यवसायात्मक बुद्धि

Share on WhatsApp Share on Telegram
« PreviousChapter List

अब एक ही बात इस योग के मुतल्लिक रह जाती है जिसका जिक्र 'व्यवसायात्मिका' आदि 41वें श्लोक में है। उसी का स्पष्टीकरण आगे के 42-44 श्लोकों में भी किया गया है, बल्कि प्रकारांतर से 45-46 में भी। इन श्लोकों में कहा गया है कि योगवाली बुद्धि एक ही होती है, एक ही प्रकार की होती है और होती है वह निश्चित, निश्चयात्मक (definite)। उसमें संदेह आगा-पीछा या अनेकता की गुंजाइश होती ही नहीं। विपरीत इसके जो योग से अलग हैं, जिनका ताल्लुक योग से हई नहीं उनकी बुद्धियाँ बहुत होती हैं और एक-एक की अनेक शाखा-प्रशाखाएँ होती हैं। वे अनिश्चित तो होती ही हैं। कहने का मतलब यह है कि जहाँ योगी के खयाल पक्के और एक ही तरह के होते हैं तहाँ दूसरों के अनेक तरह के, कच्चे और संदिग्ध होते हैं।

बात सही भी है। पहले जो कुछ योग के बारे में कहा गया है उससे यह बात इतनी साफ हो जाती है कि समझने में जरा भी दिक्कत नहीं होती, जब यह कह दिया गया है कि सिवाय कर्म के उसके करने, न करने, छूटने, न छूटने, फल, उसकी इच्छा, कर्म की जिद या उसके न करने की जिद - इनमें किसी भी - की तरफ मन या बुद्धि को जाने का हक नहीं है, जाने देना नहीं चाहिए, जाने दिया जाता ही नहीं या यों कहिए कि जाने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती, तो फिर बुद्धि या खयाल का एक ओर निश्चित होना अवश्यंभावी है। पहले से ही निश्चित एक ही चीज - कर्म - से जब वह डिगने पाता नहीं, तो फिर गड़बड़ी की गुंजाइश हो कैसे और अनेकता या संदेह इसमें घुसने भी पाए कैसे?

मगर जहाँ यह बात नहीं है और खयाल को - बुद्धि या मन को - आजादी और छूट है कि फलों की ओर दौडे, सो भी पहले से निश्चित फलों की ओर नहीं, किंतु मन में कल्पित फलों की ओर, वह बुद्धि तो हजार ढंग की खामख्वाह होगी ही। एक तो कर्मों के फलों की ही तादाद निश्चित है नहीं। तिस पर तुर्रा यह कि कर्म करने वाले रह-रह के अपनी-अपनी भावना के अनुसार फलों के बारे में हजार तरह की कल्पनाएँ - हजार तरह के खयाल - करते रहते हैं। यही कारण है कि फल और फल की इच्छा या कल्पना को जुदा-जुदा रखा है। क्योंकि कर्मों के फल तो पहले से निर्धारित या बने-बनाए होते नहीं। वे तो नए सिरे से बनते हैं, बनाए जाते हैं। हर आदमी चाहता है कि एक ही कर्म का फल अपने-अपने मन के अनुसार जुदी-जुदी किस्म का हो। यह भी होता है कि एक ही आदमी खुद रह-रह के अपने खयाल फलों के बारे में बदलता रहता है। परिस्थिति उसे मजबूर करती है। एक ही युद्ध के फलों की कल्पना हर लड़नेवाले जुदी-जुदी करते हैं। साथ ही एक आदमी की जो कल्पना शुरू में होती है मध्य या अंत में वह बदल जाती है, ठीक उसी हिसाब से जिस हिसाब से उसे अपनी शक्ति और मौके का अंदाज लगता है। इसी के साथ यदि कर्मों के करने न करने या उनके छोड़ने न छोड़ने के हठों की बात मिला दें, तब तो बुद्धि और खयालों के परिवार की अपार वृद्धि हो जाती है। वह पक्की चीज तो होती ही नहीं। कभी कुछ खयाल तो कभी कुछ। एक ही फल के विस्तार का रूप भी विभिन्न होता है।

मगर योग में तो सारा झमेला ही खत्म रहता है। वहाँ तो 'न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी' वाली बात होती है। इसीलिए उसकी महत्ता बताई गई है। 52 से लेकर 72 तक - अध्यााय के अंत तक - के श्लोकों में उसी बुद्धि का विशद चित्र खींचा गया है। वह कितनी कठिन है, दु:साध्या है यह भी बताया गया है। मस्ती की अवस्था ही तो ठहरी आखिर। इसीलिए तीसरे अध्यािय के पहले ही श्लोक में उसी बुद्धि की यह महिमा जान के अर्जुन ने कर्म के झमेलों से भागने और उस बुद्धि का ही सहारा लेने की इच्छा जाहिर की है। मगर यह तो ठीक ऐसी ही है जैसी कि किसी की एकाएक गुरु बन जाने की ही इच्छा।

« PreviousChapter List