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मयमतम् - अध्याय ४

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भूमीपरिग्रह
भूमीग्रहण कर्त्तव्य
निर्माण-हेतु भुमि का ग्रहण - आकार, रंग एवं शब्द आदि गुणों से युक्त भूमि का चयन करने के पश्चात् बुद्धिमान स्थपति को देवबलि (वास्तुदेवों की पूजा) करनी चाहिये । इसके पश्चात् ॥१॥
वह स्वस्तिवाचक घोष एवं जय आदि मंगलकारी शब्दों के साथ इस प्रकार कहे-राक्षसों के साथ देवता एवं भूत (मानवेतर प्राणी) दूर हो जायँ ॥२॥
वे इस भूमि से अन्यत्र स्थान पर जाकर अपना निवास बनायें । हम इस भूमि को (गृहनिर्माण-हेतु) ग्रहण कर रहे हैं । इस मन्त्र का उच्चारण करते हुये ग्रहण की गी भूमि पर (अधोरेखित कार्य करना चाहिये) ॥३॥
उस भूमि में हल चलवा कर गोबरमिश्रित सभी प्रकार के बीजों को उसमें बो देना चाहिये । उन बीजों को उगा हुआ एवं उनमें पके हुये फल देख कर - ॥४॥
वृषभ एवं बछड़ो के साथ गायों को वहाँ बसा देना चाहिये; क्योंकि गायों के वहाँ चलने एवं सूँघने से वह भूमि पवित्र हो जाती है ॥५॥
प्रसन्न वृषों के नाद से एवं बछड़ों के मुख से गिरे हुये फेन से भूमि परिष्कृत हो जाती है एवं उसके सभी दोष धुल जाते है ॥६॥
गोमूत्र से सींची गई तथा गोबर से लीपी हुई, शरीर रगड़ने से गिरे हुये रोमों से युक्त तथा गायों के पैरों द्वारा किये गये खेल से भूमि (शुद्ध हो जाति है।) ॥७॥
गाय के गन्ध से युक्त, इसके पश्चात् पुण्यजल से पुनः पवित्र की गई भूमि पर (निर्माणकार्य के लिये) शुभ तिथि से युक्त नक्षत्र का विचार करना चाहिये ॥८॥
विद्वानों द्वारा सुविचारित शुभ करण, मुहूर्त एवं सुन्दर लग्न में अक्षत एवं श्वेत पुष्पों से वास्तुदेवों का पूजन करना चाहिये ॥९॥
ब्राह्मणों द्वारा यथाशक्ति स्वस्तिवाचन कराना चाहिये । इसके पश्चात् वास्तुक्षेत्र के मध्य में पृथिवीतल की खुदाई करनी चाहिये ॥१०॥
वास्तु के मध्य मेख एक हाथ गहरा, चौकोर, जिसकी दिशायें ठीक हों, दोषरहित गड्ढा खोदना चाहिये । यह गड्ढा सँकरा नहीं होना चाहिये तथा न ही बहुत गहरा होना चाहिये ॥११॥
इसके पश्चात् यथोचित विधि से पूजा करके तथा उस गड्ढे की वन्दना करने के पश्चात् चन्दन एवं अक्षतमिश्रित तथा सभी रत्‍नों से युक्त जल को- ॥१२॥
पयसा तु ततः प्राज्ञो निशादौ परिपूरयेत् ।
बुद्धिमान्‌ मनुष्य को रात्रि के प्रारम्भ में गड्ढे में डालते हुये उसे जल से पूर्ण करना चाहिये । इसके पश्चात् पवित्र होकर सावधान मन से गड्ढे के पास भूमि पर कुश बिछा कर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ जाना चाहिये ॥१३॥
उपवास करते हुये इस मन्त्र का जप करना चाहिये । मन्त्र इस प्रकार है- हे पृथिवी, इस भूमि पर उत्तम समृद्धि स्थापित कर इसे धन-धान्य से वृद्धि प्रदान करो । तुम कल्याणकारी बनो, तुम्हें प्रणाम ॥१४-१५॥
उत्तमादिभूमीलक्षण
बुद्धिमान स्थपति को दिन होने पर प्रथमतः उस गड्ढे की परीक्षा करनी चाहिये । इसमें जल बचा हुआ देख कर सभी प्रकार की सम्पत्तियों के लिये उस भूमि को निर्माणहेतु ग्रहण करना चाहिये ॥१६॥
भूमि यदि गीली रहे तो उस पर निर्मित गृह में विनाश होता है । यदि शुष्क रहे तो उस गृह में धन-धान की हानि होती है । यदि उस गड्ढे के खोदने से निकली मिट्टी से उसे भरा जाय एवं पुरी मिट्टी उसमें समा जाय तो भूमि को मध्यम श्रेणी का समझना चाहिये ॥१७॥
यदि मिट्टी से गड्ढा भर जाय एवं मिट्टी बच भी जाय अर्थात् मिट्टी अधिक हो तो भूमि उत्तम, यदि गड्ढा भी न भरे एवं मिट्टी समाप्त हो जाय अर्थात् मिट्टी गड्ढा भरने में कम पड़े तो भूमि हीन कोटि की होती है । उस गड्ढे के मध्यमें यदि जल दाहिनी ओर घूम कर बहे तो इस प्रकार की सुरभि की मूर्ति के सदृश वाली भूमि सर्वसम्पत्तिकारक होती है ॥१८॥
इसे निर्माण-हेतु ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार पूर्वोक्त विधि से विविध प्रकार की भूमियों का ज्ञान कर व्यक्ति को ग्राम, अग्रहार, पुर, पतन, खर्वट, स्थानीय, खेट, निगम एवं अन्य की स्थापना के लिये भूमि का ग्रहण करना चाहिये ॥१९॥
 

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