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दिव्यात्माओं का एक मेला

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सन् ८२ में दीवाली की घनी अधेरी डरावनी रात में लोकदेवता कल्लाजी ने अपने सेवक सरजुदासजी के शरीर में अवतरित हो मुझे चित्तौड़ के किले पर लगने वाला भूतों का मेला दिखाया तब मैंने अपने को अहोभाग्यशाली माना कि मै पहला जीवधारी था| जिसने उस अलौकिक, अद्भुत एवं अकल्पनीय मेले को अपनी आँखों से देखा। इस बार सन् ८४ की बैकुंठ चतुर्दशी को कल्लाजी के दर्शन किये तो उन्होंने हुकम दिया कि आज ही चित्तौड चलना है।

वहां कल की देव दीवाली को ‘दिव्यात्माओं का लगने वाला मेला’ दिखायेंगे। लिहाजा हमने उदयपुर से एक टैक्सी ले ली। मैं, डॉ सुधा गुप्ता और मेरा छोटा बच्चा तुक्तक सरजुदासजी के साथ निकल पडे। रात को दस बजे हम चित्तौड़ पहुँच गये। वहां बिडला धर्मशाला में हमने अपना पड़ाव डाला जहा सभी हमसे परिचित थे। करीब साढ़े दस बजे जब हम अपना सामान तरतीबवार जमा कर कमरे में बैठे ही थे कि अचानक सेनापति मानसिंहजी पधारे और अपनी सयत वाणी में बोले-

“देखो बेटा यह चित्तौड है! आज नदी समुद्र में मिलना चाहती है बेटा। हम समझ गये, संसार की नजर ठीक नहीं है दुनिया के बेटों; विश्वम्भर आपका भला करे, जय विश्वम्भर। सारे राजाओं ने हमें गुनहगार ठहराया है बेटों। हम तो गुनहगार है। जय विश्वम्भर”|

यह कहकर मानसिंहजी चले गये।

ये मानसिहजी सेनानायक कल्लाजी के सेनापति हैं। मेरा जब-जब भी कल्लाजी के साथ बाहर शोधयात्राओं में जाना हुआ, कल्लाजी के आदेश से मानसिंहजी सदा हमारे साथ रहे। मीरां सम्बन्धी मेडता की शोध यात्रा में भी पूरे सप्ताह भर मानसिंहजी अपने कुछ विशिष्ट अदृश्य सैनिकों के साथ हमारे साथ रहे। जब मानसिंहजी सरजुदासजी को आते हैं तब उनका आसन उनका साफ और उनका व्यवहार जुदा-जुदा होता है| हमे पहले से यह मालूम था| हमने उनके सम्मानप्रती हर व्यवस्था कर रखी थी| हम बातचीत में मग्न हैं। इतने में मग ध्यान अपने हात पर खींची गयी रेखा की ओर चला जाता है।

सुधाजी पूछ बैठती है, “कितनी बजा रह हो, क्या अभी से नीव सताने लग गई है? अभी तो तुक्तक भी जग रहा है| अपनी बातों में मनसे अधिक रस भी यहीं ले रहा है।”

मैंने कहा, “एक-एक ग्यारह बजी है, सोने की बात ही करो| बडे दिनी बाद बाहर कितनी अच्छी चांदनी है...! अभी तो थोड़ा घूमेंगे. कुछ हवारखोरी करेंगे, तब जाकर सोयेंगे।”

मैने अपनी बात पूरी की ही कि उसी कमरे के एक कोने में लगे खाट पर सरजूदासजी जिन्हें सब बापूजी कहते हैं, जाकर सो जाते हैं और आदेश-निर्देश की भाषा में बोलना शुरू कर देते हैं।

हमें समझने मे तनिक भी देरी नहीं लगती है कि कल्लाजी बावजी का पधारना हो गया है| जो चुपचाप अपने सैनिकों को यहां की व्यवस्था बाबत आदेश-निर्देश डे रहे है। हमें कल्लाजी की बात तो स्पष्ट सुनाई दे रही है पर सैनिकों में से कोई आवाज थी कि उनकी भनक तक नहीं सुनाई पड रही है। मै चुपचाप अपनी डायरी में लिखता चलता हुँ|

“आ ओ चोवाणा। जै आसायुगजी...!! गई है। सानदार भी...| भलो हा-हा सा हो। निज म्हाला मा.. है? ठीक है बन्दोबस्न सब कग देना करीजो। जे आसापुरजी। आप आपरे का लागी। जे माजी महापाई। म्हांतो भला कई ठीक हाद। नायकजी आग, रे बूडा जीव है। किण दरवाजे उबा हो ठीक है, ठीक है। काल री रात है। और कई है? कोई प्रचार को चानी...

नायकजी आप तो भुवा री घणी रक्षा करी। आपने कुकर भूल सका| नायकजी थाणी पागड्याई फाटगी भला। हा अग्ज कर देऊ। जै माताजी| पधारो थे|”

“रामदेवजी। पीरजी पधारया। कद खबर आई? कुण अग्यो? ओ हो भलो भाग भला चित्तौड़ से| काले पारसी| भला-भला भाले करी भा? वाने जै गुरू म्हाराज जी कीजो नै अग्ज जरणी का जोदोई हादसा करा। हा जरणी तो अन्तर में भी ने ऊपर भी गुरू म्हाराज पधारे| तो बाने भी लेता पधारे।

आपरे सब त्यारी है| और कई मासवासी त्याग येतो नोसाद्खाजी रे अठे थाणी| पगत लगा लीजो कोई माद पायी जा तकलीफ पड़े।”

कोई बायां आई वे तो कासी ने के दीजा,बतुलखारी....!! भल्ला आ नारी अठे कां आई है? अणी ने मांगी अभैसिंहजी ने कै दीजो के नारी पर जुलम नी करे कलिये क्यों है| अरे नारी कई करे? नारी म्हारी मावड़ है या कोई भी जान को|”

“सलाम-सलाम-सलाम और कई तकलीफ वे तो न कीजो को माल तो दुख हे। म्हंतो कई थांणे भेरो बैठ्यो है|”

“जै रूघनाथ री। मेताबसिहजी थे तो भला राजपूत मिया भला। अरे भला पण माथे रजपूती राखो। खाली नाम मेताबसिहजी राखियो व्हेतो तो कई व्हेतो? पेला जा नै आया हो जो पतो| रेवण रो कित्तो मजो आयो? कठे नपुसकां री जमात भेरी क्यो है? और भर पुरणसिंहजी कूटाकूटी ना करो तो कूटू कूटू तो करो।”

“पूरणसिंहजी ने भेजो तो हुं आपरो काम करी दू। आओ भया पूरणसिंहजी|”

कालीजी। मेताबसिंहजी ने डोईया में गेलो थे| मानतो मार्गात अबे आयोडा जीव ने कलेकाडोर

लगभग साढ़े ग्यारह बज रहे हैं। हमने जान लिया कि मलकी सारीच्या जिम्मा कल्लाजी का है इसीलिए वे सारी जानकारी ले रहे हैं और मटाफट आवन्धक निर्देश दे रहे हैं। उनमें व्यवस्था सम्बन्धी कितना अनुभव, पेनी दृषि और प्रशासनिक क्षमता है और नारियों के प्रति कितना मान-सम्मान है।अपने सैनिकों के साथ उनकी कितनी आत्मीयता और पारिवारिकता है। वे किसी का दिल नहीं खाते हैं और रंग- व्यंग्य में कैसी चुटकी छोड़ते हैं हर छोटी से छोटी बात का उन्हें कितना ध्यान है। वे स्वय कितने मर्यादित हैं और दूसर्गे की मान-मर्यादा का उन्हें कितना ख्याल है।

यह मेला दिव्य आत्माओं का है। जो आत्माए सदगति में है वे सब इस मेले में सम्मिलित होती हैं। जितने भी अच्छे संत, संतियां महापुरूष हुए है वह यहा आते हैं। महाराणा मोकल के समय से इस मेले का प्रारम्भ हुआ। तब में अब तक लगना रहा है। इस मेले में जगत्जननी जोग माया सबको काम की जिम्मेदारी सौंपती है और पिछले दिये गये कार्य का लेखा-जोखा करती है। ऐसे मेले और भी लगते हैं। कही एकादशी की, कहीं पूर्णिमा को। चित्तौड़ के इस मेले की बड़ी भव्य तैयारी करनी पड़ती है। मुख्य दीवाली पर जो भूतों का मेला लगता है उसकी तैयारी तो दो दिन में कर ली जाती है पर इस मेले की तैयारी मे पूरे नौ दिन लगते हैं।

रामदेवजी का इस मेले में पहली बार पधारना हुआ। मारवाड़ के मुख्य सोलह उमरावों मे रामदेवजी का बिराजना होता है। जो गादी ढलती है उस पर पहली पंक्ति सोलह उमरावों की लगती है। उसके पीछे बत्तीसो की । फिर साहूकारों की पंक्ति। फिर रावराजा आदि बैठते है। रावराजा पासवान्यों के लडके होते थे। ग्खेत के बालक रावराजा कहलाते थे। राजा के साथ उसके बावड (पिता) का नाम चलता जबकि राव राजा के साथ उसकी मावड (माता) का नाम चलता।

धर्मशाला के ठीक सामने सडक के परले किनारे भामाशाह की हवेली है। हमने हवेली के ऊपरी हिस्से में काफी देर तक दिव्यात्माओ का निरन्तर आना जाना देखा। लग रहा था जैसे इस पूरी हवेली में कोई महा महोत्सव हो रहा है, जिससे निरन्तर लोगों का इधर-उधर आवागमन हो रहा है। आदमकद परछाइया हम अपनी आखें फाड-फाड कर देख रहे हैं|

यह नहीं कि ये स्थिर हैं, सब अपने-अपने कार्य में व्यस्त हैं दिन को खुशहाल ,लगने वाली हवेली यह हवेली विरान शून्य नहीं लग रही थी। कभी-कभी प्रकाश भी हमे दिखाई दिया|

ईस दौरान हम बाहर नही निकले| हमने समने देखा कि भामाशाह की हवेली से कुम्भामहल तक के उस पुरे काले आकाश में निरन्तर कोई न कोई विम्ब आता दिखाई दे रहा है। इनमें कभी हलकीसी रोशनी होती है| कभी तेज। कभी बहुत तेज। कभी पीली। कभी नीली। कभी लाल| कभी एकदम तेजी वाली तो कभी लपलपाती। एक अजीब सुहनेरा नजारा हम देखते रहे! इतनी सारी दिखती, विलोप होती, लम्बे समय तक निरन्तर आती रही रोशनीयोंसे से हमने अनुमान लगा लिया कि कल के मेले में कितनी दिव्य आत्मा जुटेगी। कल्लाजी ने बताया कि सबके सब महल और हवेलिया दिव्य आत्माओं के ठहरने के लिए व्यवस्थित जगह सजा दी गई है। सबकी ठहरने की जगह तय है। सब जगह उनकी सवा के लिये नौकर-चाकर सैनिक तैनात हैं। लगभग एक बजे हमने धर्मशाला में प्रवेश किया| देखा तो कुत्ते ईधर से उधर दौड़ रहे है और ऊंचे आकाश की ओर अपने मुह को किये भौंक रहे है| सही भी है कि कुत्तों को यह सब प्रत्यक्ष दिखाई पडता है। हम सब हस पडे और अपने कमरे कि ओर सोने चल पडे|

दुसरे दिन कार्तिक पूर्णिमा के दिन हमारे लिये पुरा दिन खाली था| दिव्यात्माओं का मेला तो रात ही को देखने मिलता है| अन्तः हम सुबह ही वहां के दर्शनीय मुख्य-प्रमुख स्थानों को देखने निकल पडे। सबसे पहले हमने भामाशाह की हवेली देखी। हवेली के सबसे ऊपरी कक्ष की छत के भीतर बनी पुलिया देखी जो तब भीतर से पूरी हीरे जवाहरात से ठस भरी हुई थीं पर अब जगह-जगह से टूटी-फूटी लगीं। इनसे पता चलता है कि भामाशाह कितने दौलतवान थे और कहां-कहां उसका धन नहीं छिपा रहता था।

पूरे खण्डहर बने प्रसिद्ध मातीबाजार के नीचे के तलघर देख्ने। ये तलघर पाँच-पाँच, सात- सान मंजिल के हैं। एक तलघर में हमने देखा दीवार में से कोई धन-कलश निकाल ले गया है| जिसकी जगह सब कुछ साफ मना रही है। इसी के पास नाग की बड़ी गहरी मोटी बाबी देखी जिससे लगा कि कितना मोटा नाग यहां धन की रक्षा के लिए रहा होगा।

विशाल फैला हुआ कुम्भमहल देखा। उसका तोशखाना देखा। यह नीचे नौ मंजिला है, जिसमें हाथी घोड़ों के जेवर रहते थे। यहा एक और नीचे भोजराज की माता करमावती का जौहर-स्थल देखा। जौहर की राख आज भी सब कुछ बता रही है। चाहिये कोई देखने-समझने वाला भोज के मीरा के महल देखे, जहा शादी के बाद सर्वप्रथम इन्हीं महलों में उनका वास रहा सोहल बत्तीस का बैठक खाना देखा इसके चारों ओर चीकें पड़ जाती जहा ऊपर जनाना सरदार बिराजता। सारी बातचीत राणीया भी सुनती थी| कोई निर्णय होता और उन्हें जचता नहीं तो दासी के माध्यम से अपनी असहमति जताती थी..!! उनके निर्णय को सभी मान देते। नारियों की तब बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी|

इसी महल में कभी १४१ हाथी पनते थे। सुबह यही हाथी अपनी सुन्डो से राणाजी को सलामी देते। घोड़े ऐसे थे कि जरासी आहट से धरती शृजा देते। गज गोल झेलते। उनकी दृष्टि ऐसी होती कि दुश्मनों की ताकत पहले भाप लेते और चिघाडकर मालिक को सकेत कर देते।

जवाहरबाई का निवास महल देखा। अपने व्यक्तित्व से यह इतनी रौबदार थी कि अच्छे-अच्छे राजपूतों की मूछ नीची हो जाती। कासी बाई का दाहस्थल देखा| चबूतरे पर पांच लक्कडों में जलाकर उसे विशिष्ट मान दिया। यह बड़ी समझदार और खैरख्वाह दासी थी। तीन महाराणाओं की धाय माय के रूप में इसने बड़ी सेवा की।

जौहर कुण्ड देखा। सोलह हजार नारियों ने एक साथ इसमें जौहर किया था। लडाई मे कई वीर मारे गये। इधर खाद्य सामग्री नही रही। जितने भी वृक्ष पौधे झाडिया थीं उनके पत्ते खाने की सामग्री बने। यहां तक कि हरी पतली हालिया नक खाने के काम में ली गई । वृक्ष केवल ठूठ के रूप में रह गये तब क्या होता। जौहर के अलावा कोई चारा नहीं था। तय किया गया कि नारियों का तन चला जाये अच्छा है मगर गीलन जाये। कोई नारी किसी दुश्मन के हाथ न पड़ सके। इसीलिए जौहर करना पड़ा। वृक्षों के जितने भी ढूंठ बचे रहे उन सबको काट-काट कर कुण्ड में डाला और चिता तैयार की।

जौहर की यह दास्तान सुनाते-सुनाते स्वयं कल्लाजी फफक पड़े। हमारे सम्मुख भी सारा वातावरण आसुओं से भीगा टपक-टपक धार दे गया। कल्लाजी बोले-तब कोई नारी मरना नहीं चाहती थी। पकड-पकड़ कर एक-एक को चिता में झोंकते रहे। इन हाथों ने अनगिनत नारिया अग्नि को भेंट की थीं। वे चिल्लाती रहती कि हमें अपने पीहर भेज दो, मत मारो मगर इसके अलावा कोई चारा ही नहीं था। बाहर चारों ओर से अकबर की सेना ने घेरा डाल रखा था| उससे बचने का कोई रास्ता नहीं बचा था।

 जौहर कुण्ड के पास ही ऊपर के मैदान में दासियों ने एक दूसरे के कटार भोककर कटार जौहर किया। इन दासियों की चिता कहां से होती। इतनी लकडियां कहां थीं। लगभग २० हजार दासियों का यहां इतना ऊवा ढेर लग गया कि अकबर की मोर मंगरी भी इसके सामने पानी भरने लग गई। अकबर को बता दिया कि उसकी मोर मंगरी लाशों की इस मगरी के सामने कितनी तुच्छ नाचीज है यहा तो दासियों तक ने आपस में कटार खाकर।

वे सम्मुख जाकर मृत्यु मागी तब हाथी न अपने पाव के नीचे उनका एक यात्र दकर दूसरे पाव को सूड से चीरकर काम तमाम कर दिया|

हर महल मे नारी खण्ड, दौलत खण्ड, बैठक खण्ड, दासी खण्ड थे| छीपने के लिये खण्ड बने हुए है। युद्ध में योद्धा ही नहीं, बेताल, वीर और भक्तिया भी काम करती। अकेले पत्ता ही नहीं। उनकी मां, पत्नी और बहिन ने भी युद्ध में बड़ी बीरता दिखाई।

यहां से कालिकाजी के दर्शन कर पद्मिनी महल देखते हुए कीर्तिस्तम्भ देखने चले गये। यह कीर्तिस्तम्भ बनवाया हमीर ने पर इसके मूल में शाह छोगमलजी थे जिन्होंने सारा धन लगाया। छोगमलजी बनिये थे जिन्होंने अपने जीवन में कभी सब्जी तक नहीं काटी पर वक्त आने पर अपना पराक्रम दिखाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। पास के बने जैन मन्दिर में एक समय जब मुसलमानों ने आक्रमण कर दिया तो इन्हीं छोगमलजी ने अपने हाथ में तलवार धारण कर तीन सौ मुसलमानों का पना साफ कर दिया।

कीर्तिस्तम्भ से हम लोग लाखोटिया बारी पहुंचे। यहां हमें पत्थर का बना रूपसिहजी का सिर मिला जिसकी सिन्दूर मालीपना लगाकर कल्लाजी ने स्थापना कर दी। यह स्थापना उसी जगह की जिस जगह तब जयमलजी ने नागणी माता की स्थापना की थी। ये रूपसिंहजी जयमलजी के बडे लड़के थे। ये लड़ने में जितने बहादुर थे, बुद्धि मे भी उतने ही तीव्र थे। लड़ते-लडते जब लोहे के गोले बनवाये और तोपों में दाग-दाग कर दुश्मनों का मुकाबला किया।

ये सवामणी गोले थे जो आज भी चित्तौड़ के किले पर यत्र तत्र देखने को मिलते हैं। इनके सिर की स्थापना करते हुए कल्लाजी ने बताया कि रूपसिंहजी का जितना बडा सिर था। बहादुर तो इतने थे कि आंतें बाहर निकल आई तब भी जब तक सास रहा, बन्दूक नही छोडी, लड़ते ही रहे। अन्त में जब गोला आ लगा तब इनका सिर नीचे जा गिरा। लगभग ३२७ बरस तक इधर-उधर ठोकरें खाने के बाद आज यह सिर प्रतिस्थापित हुआ है। हमने नारियल की, अगरबत्ती की अच्छी धूप की और उस सारे स्थान को भी अच्छी तरह साफ किया।

लाखोटिया बारी से हम रतनसिंहजी के महलों की ओर चले। सध्या का समय हो गया था। यही महल के ऊपरी छोर पर करणीजी और उनके पति दीपाजी के रूप में दो सफेद चीलों के दर्शन हुए। इस रूप में अकेली करणीजी के दर्शन तो हमें मेडता के दूदाजी के महल-खण्डहरों मे भी हुए थे पर दीपाजी और करणीजी के एक साथ दर्शन तो आज ही हुए बहुत देर तक हम लोग इन्हें देखते रहे दोर्नो चीलें आपस में काफी देर आने को बहुत-बहुत चलते रहे...| मंत्र फिगते रहें और चलते रहे।

गली बायका दीपक जादेगा और आप कुछ भी देख नहीं पायेंगे| जयपुर की ओर मा पुरब भा , हो को गनगू करसे रह गये सो यहां आने में की गई भी पर चाल पतसं आइये और जाइये। हमारी का भी आप विश्वम्भर आपका भला करे, अब तेयारी कर ली। हमने फलों में संतरा, मी सन या अरह की मिठाई ले ली। कुछ गरियो ने हाजी ने सकेत दे दिया कि रास्ते में कोई लिंगा नहीक अगुद इशाग कर को नमन करना।

दो अंगुली बताऊं तो फल न देना, " मल देगा और साथ पीछे करू तो अमल-दूध की धार दे देना।” इस सम्बन की बज चुकी थी।

हम धर्मशाला से निकलकर सीधे कालिका मन्दिर पहुंचे बालिका को श्री पदार विजयस्तम्भ के रास्ते लौटे। आम ईमार विम्ब दिखाई दिये। दूर पहाड़ी पर एक लम्बी कतार दीपक श्री दिपाई दी। बताया कि ये सब कल्लाजी के सैनिक हैं और उनके बीच एक समद रोशनी वास मानसिंहजी हैं। रास्ते में छोटी बड़ी तेज कम तेज वाली रोशनिया दिखाई दी! अगम का इन गेशानियों को काफी देर तक देखा, जब-जब जहा-जशकदाजीने इशारा दिया हमने नमन किया और अपने साथ की सामग्री उन्हें भेंट की। पन मल में गुजो हुए हमें मालपुओं की बड़ी तीव्र खुशबू आई और दो परछाइयां दिखाई दी जिन कल्लाजी ने बात करते हुए-'राजी रीजो"।

हमारे पूछने पर उन्होंने बताया कि यहां मादा भोस चल रहा है। यदि मैं आपके साथ नहीं होता तो इस भोज में गामित होता अजूबा भारत कुम्भा महल में हमें बहुत समय तक बहुत सारी भीड़ लिये यग्छाइया देखने का मिलीं, कल्लाजी न बताया कि यहा जनाना सरदार का जीमण रखा गया है भोजन की तैयारी चल रही है। कुछ देर तक हम भी वहीं घूमते रहे और लगातार परछाइयों का आना-जाना देखते रहे। ऐसा ही लग रहा था कि महिलाओं की पूरी की पूरी भीड़ उमड़- घुमड कर घटाटोप हो रही है।

कुछ समय बाद जौहर कुण्ड से आने वाली सतियों की पक्तिबद्ध कतार दिखाई दी जो भोजन के लिए आ रही थी। यहां इस सारी व्यवस्था का जिम्मा पुरानी दासी कासीबाई को सौंप रखा था। मुसलमान आत्माओं के खाने की व्यवस्था नौ गजा पीर के वहां रखी गई थी।

दिव्यात्माओं का यह मेला मुझे भूतों के मेले की तरह कतई डरावना नहीं लगा। चांदनी रात का यह मेला हम लोगों के लिये बड़ा सुखद और शांतिमय रहा. इसके आनंद की अनुभूति को क्या शब्द दूं। शब्दो में बांधने का यह मेला है भी नहीं। यही कहना फिलहाल तो बहुत पर्याप्त है कि जो दिव्य अनुभूति हुई वह इस लोक की अनुभूति तो नहीं ही कही जा सकती और वैसे भी अभी तो इस यात्रा का प्रारम्भ मात्र है।

कौन जाने कहा-कहां की यात्रा अभी शेष है?

 

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