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पत्री 30

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येवो वसंतवारा

नवजीवन-प्रदाता। चैतन्य ओतणारा
सुकल्यास हासवीता। आला वसंतवारा

आला वसंतवारा। वनदैन्य हारणारा
सुटला सुगंध गोड। भरला दिगंत सारा

रानीवनी बहार। आला फुलांफळास
समृद्धि पाहुनीया। आनंद पाखरांस

वेली तरू रसाने। जातात भरभरोनी
डुलतात नाचतात। नवतेज संचरोनी

फुटतो मुक्या पिकाला। तो कंठ गोड गोड
सजते सुपल्लवांनी। ते शुष्क वृक्ष-खोड

सोत्कंठ गायनाने। पिक नादवीत रान
परिसून ते सहृदय। विसरून जाइ भान

सृष्टीत सर्व येतो। जणु जोम तो नवीन
जे जे वठून गेले। ते ते उठे नटून

सृष्टीत मोद नांदे। सृष्टीत हास्य नांदे
संगात गोड गोड। सृष्टीत सर्व कोंदे

सृष्टीत ये वसंता। परि मन्मनी शिशीर
मम जीवनी वसंत। येण्यास का उशीर

का अंतरी अजून। नैराश्य घोर आहे
का लोचनांमधून। ही अश्रुधार वाहे

अंधार अंतरंगी। भरला असो अलोट
काही सुचे रुचे ना। डोळ्यांत अश्रुलोट

उत्साह लेश नाही। उल्हास अल्प नाही
इवलीहि ना उमेद। झालो हताश पाही

सत्स्फूर्तिचा स्फुलिंग। ना एक जीवनात
मेल्यापरी पडे मी। रडतो सदा मनात

हतशुष्क जीवनाचा। निस्सार जीवनाचा
जरि वीट येइ तरिही। न सुटेच मोह त्याचा

ओसाड जीवनाची। भूमी सदा बघून
वणवेच पेटतात। मनि, जात मी जळून

ओसाड जीवनाचे। पाहून वाळवंट
करपून जीव जाई। येई भरुन कंठ

पाहून जीवनाचा। सारा उजाड भाग
मज येइ भडभडोनी। मज ये मदीय राम

कर्मे अनंत पडली। दिसतात लोचनांते
परि एकही कराया। राया! न शक्ति माते

संसार मायभूचा। सारा धुळीत आज
काही करावयाला। येई मला न काज

हृदयी मदीय भरते। देवा अपार लाज
काहीच हातुनिया। होई न मातृकाज

असुनी जिवंत मेला। जो कर्महीन दीन
मनबुद्धि देह त्याची। ती व्यर्थ, फक्त शीण

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