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पत्री 44

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प्रार्थना

माझ्या ओठावरि थरथरे प्रार्थना एक हीच
व्हावे माझ्या कधि न भगवन् हातुनी कर्म नीच
श्रद्धा राहो हृदयि असु दे त्वत्स्मृती देवराज!
चिंतेचे ना किमपि मग ते नाथ! केव्हाहि काज

त्रिचनापल्ली तुरुंग, जानेवारी १९३१

प्रसन्नता


पुशी अहंता निज पापमूळ। खराखुरा होउन राहि मूल
जिथे अहंकार जिथे घमेंड। प्रसन्नता तेथ न दावि तोंड।।

समस्तपापस्मृति जै जळेल। गळा पिशाच्चापरी ना बसेल
जणू पुनर्जन्मच मानसाचा। तदा घडे लाभ प्रसन्नतेचा।।

प्रसन्नता स्वस्त न वस्तु बापा। प्रसन्नता मुक्तिच मूर्तरूपा
प्रसन्नता वस्तु न मर्त्यभूची। प्रसन्नता सुंदरता प्रभूची।।

प्रसन्नता बाळ मनोजयाचे। प्रसन्नता बाळ तपोबळाचे
प्रसन्नता संयमन-प्रसूती। प्रसन्नता मंगलपुण्य-मूर्ति।।

सदैव सेवारत शांत दात। त्वदिंद्रिये पाहुन विश्वकांत
तदंगि लोभे फिरवी कराते। प्रसन्नता तै वरिते तयांते।।

सुधारसाचा प्रभुच्या कराचा। जया शुभ स्पर्श घडेल साचा
तदीय ते जीवन होइ नव्य। प्रसन्नता-लाभ तयास दिव्य।।

वसुंधरेच्या हृदयामधून। जसा झरा येत उचंबळून
तसा मनोमोद अनंत आत। प्रसन्नतारूप धरून येत।।

असेल ज्याच्या हृदयी अथांगा। मनोहरा मंगलभावगंगा
तदार्द्रता जी झिरपे कृतीत। प्रसन्नतानाम तिलाच देत।।

अनंत जन्म प्रथम श्रमावे। अनंत जन्मावधि संतपावे
अनंत वेळा पडुनी चढावे। प्रसन्नतेने मग रे नटावे।।

-नाशिक तुरुंग, मे १९३३

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