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बुद्ध 13

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सभ्यगृहस्थ हो, हें बुद्धरत्न ह्या भारतभूमींत उत्पन्न झालें हें या भूमीचें मोठें भाग्य होय। जगाच्या इतिहासांत या रत्नाच्या योगें केवढा फेरफार झाला हें आपणांस सांगण्याची आवश्यकता नाहीं. ह्या सद्रुरूला, ह्या जगद्ररूला, -तुकारामबोवांच्या ह्मणण्याप्रमाणें ह्या खर्‍या देवाला१- आह्मी गेलीं हजार वर्षें अगदींच विरून गेलों होतों; परंतु पाश्चात्य पंडितांच्या परिश्रमानें ह्या रत्नाची पारख आह्मांस हळूहळू होत चालली आहे हें सुचिन्ह समजलें पाहिजे.  ह्या रत्नाचा उज्वल प्रकाश आमच्या अंत:करणावर पडून आमचें अज्ञान नष्ट होईल, आमच्यांतील भेदभाव आह्मी विसरून जांऊ, व पुन: मनुष्यजातीचें हित साधण्यास समर्थ होऊं अशी आशा आहे. सरतेशेवटीं स्थविर अनिरूद्धाचार्य यांच्या वाणीनें मी अशी प्रर्थना करतों कीं,
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(१ सद्रुरूवांचोनि सांपडेना सोय। धरावे ते पाय आधीं त्याचे।। आपणासारिखें करिती तात्काळ। कांहीं काळवेळ नलगे त्यांशी।। लोह परिसाची न साहे उपमा। सद्रुरूमहिमा अगाधची।। तुका ह्मणे ऐसें आंधळें हें जन। गेलें विसरून खर्‍या देवा।।)
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“भूतं भवद्भावि च धर्मजांत।
योऽनन्यथा स्वयमबोधि सुबोधिमूले।।
ज्ञेयोदयो सुधिषणावरणानभिज्ञ: ।
संबुद्ध एष भवतां भवताद्विभूत्यै।।”


(भूत भविष्य आणि वर्तमान धर्मतत्त्वें उत्तम बोधिवृक्षाखालीं ज्यानें स्वत: यथार्थ जाणिलीं व ज्ञेय तत्वांचा (अंत:करणांत) उदय होत असतां बुध्दीवर आवरण पडल्याचें ज्याला मुळींच माहीत नाहीं, असा हा संबुद्ध आपल्या कल्याणाला कारण होवो।).
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समाप्त
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