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यज्ञयाग 3

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हरि. - सहा जीवकायांची * हिंसा न करतां, असत्य भाषण आणि चोरी न करतां, परिग्रह, स्त्रिया, मान आणि माया सोडून साधुलोक दान्तपणें वागतात. पांच संवरांनी*संवृत होऊन, जीवीताची चाड न ठेवतां देहाची आशा सोडून, ते देहाविषयीं अनासक्त होतात, व (अशा प्रकारें) श्रेष्ठ यज्ञ यजीत असतात.
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* पृथ्वीकाय, अपकाय, वायुकाय, अग्निकाय, वनस्पतिकाय आणि वसकाय असे सहा जीवभेद. पृथ्वीपरमाण्वादिकांत जीव आहे, असे जैन मानतात. वनस्पतीकाय म्हणजे वृक्षादिक वनस्पतिवर्ग. त्रसकायांत सर्व जंगम किंवा चर प्राण्यांचा समावेश होतो.
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* पांच संवर म्हणजे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आणि अपरिग्रह यांनाच योगसूत्रांत यम म्हटलें आहे. साधनपाद सूत्र ३० पाहा.
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ब्रा. - तुझा अग्नि कोणता? अग्निकुंड कोणतें? श्रुचा कोणती? गोवर्‍या कोणत्या? समिधा कोणत्या? शांति कोणती? आणि कोणत्या होमविधीने तूं यज्ञ करतोस?

हरि.- तपश्चर्या माझा अग्नि आहे; जीव अग्निकुंड, योग श्रुचा, शरीर गोवर्‍या, कर्म समिधा, संयम शांति; अशा विधीने ऋषींनी वर्णिलेला यज्ञ मी करीत असतो.

ब्रा.- तुझा तलाव कोणता, शांतितीर्थ कोणतें?

हरि.- धर्म हाच माझा तलाव व ब्रह्मचर्य शांतितीर्थ आहे...... येथे स्नान करून विमल, विशुध्द महर्षि उत्तम पदाला जातात.

याशिवाय यज्ञयागांचा निषेध करणारी याच उत्तराध्ययन सूत्राच्या २५ व्या अध्यायांत दुसरी एक गाथा सापडते, ती अशी -

पसुबंधा सव्वे वेया जट्ठंच पावकम्मुणा।
न तं तायंति दुस्सीलं कम्माणि बलवंतिह॥

'सर्व वेदांत पशुमारण सांगितलें असून यजन पापकर्माने मिश्रित आहे. यज्ञ करणार्‍यांची ती पापकर्मे त्यांचे रक्षण करूं शकत नाहीत.'

हरिकेशिबलाच्या कथेंत यज्ञाचा तेवढा निषेध केला आहे. पण या गाथेंत यज्ञाचाच नव्हे, तर वेदाचाही निषेध स्पष्ट दिसतो.
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