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विभाग तिसरा - पौराणिक संस्कृति 66

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२७५. “त्यानंतर त्या देवतांनी भगवंताला विचारलें कीं, त्यांच्यापैकीं सुभाषित कोणाचें? भगवान् म्हणाला, ‘पर्यायानें सर्वांचेंच सुभाषित आहे. परंतु माझें म्हणणेंहि ऐका –

सब्भिरेव समासेथ सब्भि कुब्बेथ संथवं ।
संत सद्धम्ममञ्ञाय सब्बदुक्खा पमुच्चति ।।’

येथें चौथ्या चरणाचा अर्थ – प्राणी सर्व दु:खापासून मुक्त होतो.”
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१ (१ देवतासंयुत्त, सतुल्लपकायिक वग्ग, सुत्त १ पहा.)
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२७६. ‘संगति कीजै साधुकी हरै और की व्याधि ।’
इत्यादिक कबीराच्या वचनांशीं, आणि –

‘धन्य आजि दिन । झालें संतांचें दर्शन ।।१।।
जाली पापा तापा तुटी । दैन्य गेलें उठाउठी ।।२।।
झालें समाधान । पायीं विसावलें मन ।।३।।
तुका म्हणे आले घरा । तोचि दिवाळी दसरा ।। ४।।’


इत्यादिक तुकारामाच्या अभंगांशीं, व त्या काळच्या इतर साधुसंतांच्या अशा प्रकारच्या वचनांशीं वरील उतार्‍याची तुलना केली असतां असें वाटूं लागतें कीं, या संतमंडळीनें सत्संगतीची कल्पना बौद्ध वाङ्मयांतूनच घेतली असावी.

२७७. परंतु बिचार्‍या संतांना बुद्धाची कल्पना बेताबाताचीच होती.

वे कर्ता नहिं बौद्ध कहावै नहीं असुर को मारा ।
ज्ञानहीन कर्ता भरमें माया जग संहारा ।।

या वचनावरून कबीराला विष्णुपुराणांतील बौद्ध अवतार माहीत होता असें दिसतें. कबीर काशीमध्यें रहात असल्याकारणानें त्याला एवढें तरी माहीत होतें. परंतु तुकोबाला हेंहि माहित नव्हतें. बौद्ध अवतार म्हटला म्हणजे नुसता मुका, ही त्याची कल्पना ! बौध्य अवतार माझिया अदृष्टा । मौन्य मुखें निष्ठा धरियेली ।।
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