Bookstruck

बयान - 7

Share on WhatsApp Share on Telegram
« PreviousChapter ListNext »

विजयगढ़ के महाराज जयसिंह को पहले यह खबर मिली थी कि तिलिस्म टूट जाने पर भी कुमारी चंद्रकांता की खबर न लगी। इसके बाद यह मालूम हुआ कि कुमारी जीती-जागती है और उसी की खोज में वीरेंद्रसिंह फिर खोह के अंदर गए हैं। इन सब बातों को सुन-सुन कर महाराज जयसिंह बराबर उदास रहा करते थे। महल में महारानी की भी बुरी दशा थी। चंद्रकांता की जुदाई में खाना-पीना बिल्कुल छूटा हुआ था, सूख के काँटा हो रही थीं और जितनी औरतें महल में थीं सभी उदास और दु:खी रहा करती थीं।

एक दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे थे। दीवान हरदयालसिंह जरूरी अर्जियाँ पढ़ कर सुनाते और हुक्म लेते जाते थे। इतने में एक जासूस हाथ में एक छोटा-सा लिखा हुआ कागज ले कर हाजिर हुआ।

इशारा पा कर चोबदार ने उसे पेश किया। दीवान हरदयालसिंह ने उससे पूछा - 'यह कैसा कागज लाया है और क्या कहता है?'

जासूस ने अर्ज किया - 'इस तरह के लिखे हुए कागज शहर में बहुत जगह चिपके हुए दिखाई दे रहे हैं। तिरमुहानियों पर, बाजार में, बड़ी-बड़ी सड़कों पर इसी तरह के कागज नजर पड़ते हैं। मैंने एक आदमी से पढ़वाया था जिसके सुनने से जी में डर पैदा हुआ और एक कागज उखाड़ कर दरबार में ले आया हूँ। बाजार में इन कागजों को पढ़-पढ़ कर लोग बहुत घबरा रहे हैं।'

जासूस के हाथ से कागज ले कर दीवान हरदयालसिंह ने पढ़ा और महाराज को सुनाया। यह लिखा हुआ था -

'नौगढ़ और विजयगढ़ के राजा आजकल बड़े जोर में आए होंगे। दोनों को इस बात की बड़ी शेखी होगी कि हम चुनारगढ़ फतह करके निश्चित हो गए, अब हमारा कोई दुश्मन नहीं रहा। इसी तरह वीरेंद्रसिंह भी फूले न समाते होंगे। आजकल मजे में खोह की हवा खा रहे हैं। मगर यह किसी को मालूम नहीं कि उन लोगों का बड़ा भारी दुश्मन मैं अभी तक जीता हूँ। आज से मैं अपना काम शुरू करूँगा। नौगढ़ और विजयगढ़ के राजाओं-सरदारों और बड़े-बड़े सेठ साहूकारों को चुन-चुन कर मारूँगा। दोनों राज्य मिट्टी में मिला दूँगा और फिर भी गिरफ्तार न होऊँगा । यह न समझना कि हमारे यहाँ बड़े-बड़े ऐयार हैं, मैं ऐसे-ऐसे ऐयारों को कुछ भी नहीं समझता। मैं भी एक बड़ा भारी ऐयार हूँ लेकिन मैं किसी को गिरफ्तार न करूँगा, बस जान से मार डालना मेरा काम होगा। अब अपनी-अपनी जान की हिफाजत चाहो तो यहाँ से भागते जाओ। खबरदार! खबरदार!! खबरदार!!

- ऐयारों का गुरुघंटाल – जालिम खाँ'

इस कागज को सुन महाराज जयसिंह घबरा उठे। हरदयालसिंह के भी होश जाते रहे और दरबार में जितने आदमी थे सभी काँप उठे। मगर सभी को ढाँढ़स देने के लिए महाराज ने गंभीर भाव से कहा - 'हम ऐसे-ऐसे लुच्चों के डराने से नहीं डरते। कोई घबराने की जरूरत नहीं। अभी शहर में मुनादी करा दी जाए कि जालिम खाँ को गिरफ्तार करने की फिक्र सरकार कर रही है। यह किसी का कुछ न बिगाड़ सकेगा। कोई आदमी घबरा कर या डर कर अपना मकान न छोड़े। मुनादी के बाद शहर में पहरे का इंतजाम पूरा-पूरा किया जाए और बहुत से जासूस उस शैतान की टोह में रवाना किए जाएँ।'

थोड़ी देर बाद महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। दीवान हरदयालसिंह भी सलाम करके घर जाना चाहते थे, मगर महाराज का इशारा पा कर रुक गए।

दीवान को साथ ले महाराज जयसिंह दीवानखाने में गए और एकांत में बैठ कर उसी जालिम खाँ के बारे में सोचने लगे। कुछ देर तक सोच-विचार कर हरदयालसिंह ने कहा - 'हमारे यहाँ कोई ऐयार नहीं है जिसका होना बहुत जरूरी है।'

महाराज जयसिंह ने कहा - 'तुम इसी वक्त एक खत यहाँ के हालचाल का राजा सुरेंद्रसिंह को लिखो और वह विज्ञापन (इश्तिहार) भी उसी के साथ भेज दो, जो जासूस लाया था।'

महाराज के हुक्म के मुताबिक हरदयालसिंह ने खत लिख कर तैयार किया और एक जासूस को दे कर उसे पोशीदा तौर पर नौगढ़ की तरफ रवाना किया, इसके बाद महाराज ने महल के चारों तरफ पहरा बढ़ाने के लिए हुक्म दे कर दीवान को विदा किया।

इन सब कामों से छुट्टी पा महाराज महल में गए। रानी से भी यह हाल कहा। वह भी सुन कर बहुत घबराई। औरतों में इस बात की खलबली पड़ गई। आज का दिन और रात इस आश्चर्य में गुजर गई।

दूसरे दिन दरबार में फिर एक जासूस ने कल की तरह एक और कागज ला कर पेश किया और कहा - 'आज तमाम शहर में इसी तरह के कागज चिपके दिखाई देते हैं।' दीवान हरदयालसिंह ने जासूस के हाथ से वह कागज ले लिया और पढ़ कर महाराज को सुनाया, यह लिखा था -

'वाह वाह वाह। आपके किए कुछ न बन पड़ा तो नौगढ़ से मदद माँगने लगे। यह नहीं जानते कि नौगढ़ में भी मैंने उपद्रव मचा रखा है। क्या आपका जासूस मुझसे छिप कर कहीं जा सकता था? मैंने उसे खतम कर दिया। किसी को भेजिए उसकी लाश उठा लावे। शहर के बाहर कोस भर पर उसकी लाश मिलेगी।

- वही - जालिम खाँ'

इस इश्तिहार के सुनने से महाराज का कलेजा काँप उठा। दरबार में जितने आदमी बैठे थे सभी के छक्के छूट गए। अपनी-अपनी फिक्र पड़ गई। महाराज के हुक्म से कई आदमी शहर के बाहर उस जासूस की लाश उठा लाने के लिए भेजे गए, जब तक उसकी लाश दरबार के बाहर लाई जाए एक धूम-सी मच गई। हजारों आदमियों की भीड़ लग गई। सभी की जुबान पर जालिम खाँ सवार था। नाम से लोगों के रोंए खड़े होते थे। जासूस के सिर का पता न था और जो खत वह ले गया था वह उसके बाजू से बँधी हुई थी।

जाहिर है महाराज ने सभी को ढाँढ़स दिया मगर तबीयत में अपनी जान का भी खौफ मालूम हुआ। दीवान से कहा - 'शहर में मुनादी करा दी जाए कि जो कोई इस जालिम खाँ को गिरफ्तार करेगा उसे सरकार से दस हजार रुपया मिलेगा और यहाँ के कुल हालचाल का खत पाँच सवारों के साथ नौगढ़ रवाना किया जाए।'

यह हुक्म दे कर महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। पाँचों सवार जो खत ले कर नौगढ़ रवाना हुए, डर के मारे काँप रहे थे। अपनी जान का डर था। आपस में इरादा कर लिया कि शहर के बाहर होते ही बेतहाशा घोड़े फेंके निकल जाएँगे, मगर न हो सका।

दूसरे दिन सवेरे ही फिर इश्तिहार लिए हुए एक पहरे वाला दरबार में हाजिर हुआ। हरदयालसिंह ने इश्तिहार ले कर देखा, यह लिखा था -

'इन पाँच सवारों की क्या मजाल थी जो मेरे हाथ से बच कर निकल जाते। आज तो इन्हीं पर गुजरी, कल से तुम्हारे महल में खेल मचाऊँगा। लो अब खूब सँभल कर रहना। तुमने यह मुनादी कराई है कि जालिम खाँ को गिरफ्तार करने वाला दस हजार इनाम पाएगा। मैं भी कहे देता हूँ कि जो कोई मुझे गिरफ्तार करेगा उसे बीस हजार इनाम दूँगा।।

- वही जालिम खाँ।।'

आज का इश्तिहार पढ़ने से लोगों की क्या स्थिति हुई वे ही जानते होंगे। महाराज के तो होश उड़ गए। उनको अब उम्मीद न रही कि हमारी खबर नौगढ़ पहुँचेगी। एक खत के साथ पूरी पलटन को भेजना यह भी जवाँमर्दी से दूर था। सिवाय इसके दरबार में जासूसों ने यह खबर सुनाई कि जालिम खाँ के खौफ से शहर काँप रहा है, ताज्जुब नहीं कि दो या तीन दिन में तमाम रियाया शहर खाली कर दे। यह सुन कर और भी तबीयत घबरा उठी।

महाराज ने कई आदमी उन सवारों की लाशों को लाने के लिए रवाना किए। वहाँ जाते उन लोगों की जान काँपती थी मगर हाकिम का हुक्म था, क्या करते लाचार जाना पड़ता था।

पाँचों आदमियों की लाशें लाई गईं। उन सभी के सिर कटे हुए न थे, मालूम होता था फाँसी लगा कर जान ली गई है, क्योंकि गरदन में रस्से के दाग थे।

इस कैफियत को देख कर महाराज हैरान हो चुपचाप बैठे थे। कुछ अक्ल काम नहीं करती थी। इतने में सामने से पंडित बद्रीनाथ आते दिखाई दिए।

आज पंडित बद्रीनाथ का ठाठ देखने लायक था। पोर-पोर से फुर्तीलापन झलक रहा था। ऐयारी के पूरे ठाठ से सजे थे, बल्कि उससे फाजिल तीर-कमान लगाए, चुस्त जांघिया कसे, बटुआ और खंजर कमर से, कमंद पीठ पर लगाए पत्थरों की झोली गले में लटकती हुई, छोटा-सा डंडा हाथ में लिए कचहरी में आ मौजूद हुए।

महाराज को यह खबर पहले ही लग चुकी थी कि राजा शिवदत्त अपनी रानी को ले कर तपस्या करने के लिए जंगल की तरफ चले गए और पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल वगैरह सब ऐयार राजा सुरेंद्रसिंह के साथ हो गए हैं।

ऐसे वक्त में पंडित बद्रीनाथ का पहुँचना महाराज के वास्ते ऐसा हुआ जैसे मरे हुए पर अमृत बरसना। देखते ही खुश हो गए, प्रणाम करके बैठने का इशारा किया। बद्रीनाथ आशीर्वाद दे कर बैठ गए।

जयसिंह – 'आज आप बड़े मौके पर पहुँचे।'

बद्रीनाथ - 'जी हाँ, अब आप कोई चिंता न करें। दो-एक दिन में ही जालिम खाँ को गिरफ्तार कर लूँगा।'

जयसिंह – 'आपको जालिम खाँ की खबर कैसे लगी।'

बद्रीनाथ - 'इसकी खबर तो नौगढ़ ही में लग गई थी, जिसका खुलासा हाल दूसरे वक्त कहूँगा। यहाँ पहुँचने पर शहर वालों को मैंने बहुत उदास और डर के मारे काँपते देखा। रास्ते में जो भी मुझको मिलता था, उसे बराबर ढाँढ़स देता था कि घबराओ मत अब मैं आ पहुँचा हूँ।, बाकी हाल एकांत में कहूँगा और जो कुछ काम करना होगा, उसकी राय भी दूसरे वक्त एकांत में ही आपके और दीवान हरदयालसिंह के सामने पक्की होगी, क्योंकि अभी तक मैंने स्नान-पूजा कुछ भी नहीं किया है। इससे छुट्टी पा कर तब कोई काम करूँगा।'

अब महाराज जयसिंह के चेहरे पर कुछ खुशी दिखाई देने लगी। दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया - 'पंडित बद्रीनाथ को आप अपने मकान में उतारिए और इनके आराम की कुल चीजों का बंदोबस्त कर दीजिए जिससे किसी बात की तकलीफ न हो, मैं भी अब उठता हूँ।'

बद्रीनाथ - 'शाम को महाराज के दर्शन कहाँ होंगे? क्योंकि उसी वक्त मेरी बातचीत होगी?'

जयसिंह –'जिस वक्त चाहो मुझसे मुलाकात कर सकते हो।'

महाराज जयसिंह ने दरबार बर्खास्त किया, पंडित बद्रीनाथ को साथ ले दीवान हरदयालसिंह अपने मकान पर आए और उनकी जरूरत की चीजों का पूरा-पूरा इंतजाम कर दिया।

जो कुछ दिन बाकी था पंडित बद्रीनाथ ने जालिम खाँ के गिरफ्तार करने की तरकीब सोचने में गुजारा। शाम के वक्त दीवान हरदयालसिंह को साथ ले महाराज जयसिंह से मिलने गए, मालूम हुआ कि महाराज बाग की सैर कर रहे हैं, वे दोनों बाग में गए।

उस वक्त वहाँ महाराज के पास बहुत से आदमी थे, पंडित बद्रीनाथ के आते ही वे लोग विदा कर दिए गए, सिर्फ बद्रीनाथ और हरदयालसिंह महाराज के पास रह गए।

पहले कुछ देर तक चुनारगढ़ के राजा शिवदत्तसिंह के बारे में बातचीत होती रही, इसके बाद महाराज ने पूछा – 'नौगढ़ में जालिम खाँ की खबर कैसे पहुँची?'

बद्रीनाथ - 'नौगढ़ में भी इसी तरह के इश्तिहार चिपकाए हैं, जिनके पढ़ने से मालूम हुआ कि विजयगढ़ में वह उपद्रव मचाएगा, इसलिए हमारे महाराज ने मुझे यहाँ भेजा है।'

महाराज – 'इस दुष्ट जालिम खाँ ने वहाँ तो किसी की जान न ली?'

बद्रीनाथ - 'नहीं, वहाँ अभी उसका दाँव नहीं लगा, ऐयार लोग भी बड़ी मुस्तैदी से उसकी गिरफ्तारी की फिक्र में लगे हुए हैं।

महाराज – 'यहाँ तो उसने कई खून किए।'

बद्रीनाथ - 'शहर में आते ही मुझे खबर लग चुकी है, खैर, देखा जाएगा।'

महाराज – 'अगर ज्योतिषी जी को भी साथ लाते तो उनके रमल की मदद से बहुत जल्द गिरफ्तार हो जाता।'

बद्रीनाथ - 'महाराज, जरा इसकी बहादुरी की तरफ ख्याल कीजिए कि इश्तिहार दे कर डंके की चोट काम कर रहा है। ऐसे शख्स की गिरफ्तारी भी उसी तरह होनी चाहिए। ज्योतिषी जी की मदद की इसमें क्या जरूरत है।'

महाराज – 'देखें वह कैसे गिरफ्तार होता है, शहर भर उसके खौफ से काँप रहा है।'

बद्रीनाथ - 'घबराइए नहीं, सुबह-शाम में किसी न किसी को गिरफ्तार करता हूँ।'

महाराज – 'क्या वे लोग कई आदमी हैं?'

बद्रीनाथ - 'जरूर कई आदमी होंगे। यह अकेले का काम नहीं है कि यहाँ से नौगढ़ तक की खबर रखे और दोनों तरफ नुकसान पहुँचाने की नीयत करे।'

महाराज – 'अच्छा जो चाहो करो, तुम्हारे आ जाने से बहुत कुछ ढाँढ़स हो गई नहीं तो बड़ी ही फिक्र लगी हुई थी।'

बद्रीनाथ - 'अब मैं रुखसत होऊँगा। बहुत कुछ काम करना है।'

हरदयालसिंह – 'क्या आप डेरे की तरफ नहीं जाएँगे?'

बद्रीनाथ - 'कोई जरूरत नहीं, मैं पूरे बंदोबस्त से आया हूँ और जिधर जी चाहेगा चल दूँगा।'

कुछ रात जा चुकी थी, जब महाराज से विदा हो बद्रीनाथ, जालिम खाँ की टोह में रवाना हुए।

« PreviousChapter ListNext »