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षष्ठ सर्ग : भाग 5

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उसी समय आयी प्रतिहारी घबराहट का भाव लिए
बोली ‘शंसययुक्त मित्र की, महाराज रक्षा करिए’
प्रतिहारी के यह कहने पर तत्क्षण उससे दयानिधान
प्रश्न किए ‘उस बेचारे का कहो किया किसने अपमान?’
प्रतिहारी बोली ‘अदृष्ट सा कोई शक्ति आक्रमण कर
मेघप्रतिछन्द महल के ऊपर चला गया उसको लेकर’
तत्क्षण उठकर राजन बोले ‘अरे नहीं यह संभावित,
मेरे घर भी भूत आदि से होते रहते हैं पीड़ित,
अथवा, दिन-प्रतिदिन अपने ही अनवधान स्वरूप उत्पन्न
दुराचार का मेरे द्वारा नहीं किया जा सकता ज्ञान,
प्रजाजनों में कौन किस समय किस किस पथ पर है गतिमान
किस प्रकार संभव है कि हो इसका पूरा पूरा ज्ञान’
पुनः वही स्वर उठा वहीं से ‘मित्र! शीघ्र रक्षा करिए’
अधिप वेग से परिक्रमण कर बोले ‘मित्र! नहीं डरिए’
पुनः उसी की आवृत्ति कर वह बोला ‘डरूँ नहीं कैसे?
यह प्रतिअवनत कर मेरी धड़ तोड़ रहा गन्ने जैसे’
राजन दृष्टि घुमाकर बोले ‘दो तो मुझे धनुष लाकर’
लेकर धनुष साथ में यवनी आकर यह बोली सादर
‘स्वामी! हस्तावाप शरासन यह है, करिए आप ग्रहण’
यवनी से अविलम्ब अधिप ने शीघ्र धनुष को किया ग्रहण
तत्पश्चात् उसी स्थल से उठा एक स्वर कटुभाषी
‘यह मैं, अहो! तुम्हारे अभिनव रक्त कण्ठ का अभिलाषी,
कोई व्याघ्र मारता है ज्यों रक्षा के चेष्ठित पशु को
निश्चित उसी प्रकार इसी क्षण मार डालता हूँ तुमको,

दुखियों का भय हरने वाले वीर धनुर्धारी दुष्यन्त
रक्षा हेतु यहॉं आकर अब कर दें तेरे दुःख का अन्त’
क्रोध सहित राजन बोले ‘क्या मुझे उद्देश्य किया यह स्वर?
अरे राक्षस! ठहर अभी तो नहीं रहेगा तू क्षण भर’
धनुष चढ़ाकर कहा वेत्रवति! सीढ़ी का पथ दिखलायें’
यह सुनकर प्रतिहारी बोली ‘स्वामी! आप इधर आयें’
इस प्रकार उस ओर गमन कर राजन पहुँचे वहॉं त्वरित
चारों ओर देखकर बोले ‘निश्चय ही यह तो है रिक्त’
तभी उठा स्वर पुनः वहीं से ‘अरे बचाओ आप मुझे,
यहॉ आपको देख रहा हूँ देख रहे हो नहीं मुझे?
बिल्ली से पकड़े जाने पर होता ज्यों मूषक का नाश
प्राणों की रक्षा करने में वैसा ही हूँ घोर निराश’
यह कातर स्वर सुनते ही तब राजन हुए तीव्र क्रोधित
उसी अदृष्ट सत्व से बोले ‘तिरस्कारिणी-धन गर्वित!
मेरे कर में उठे शस्त्र को तू हो जाएगा दृष्यमान
तत्क्षण इसी बाण को तुझ पर मैं अब करता हूँ संधान
जो तुझ वध्य का वधन करेगा और रक्ष्य द्विज को रक्षित
हंस दूध को पी लेता है मिश्रित जल करके वर्जित’
ऐसा कहते हुए अधिप ने किया धनुष पर शरसंधान
तभी विदूषक को स्वतन्त्र कर हुए प्रकट मातलि श्रीमान,
बोले नृप असुरों पर यह शर किया इन्द्र ने है लक्षित
अपने इस धनु के द्वारा उन असुरों को करिए दण्डित,
मित्रों पर सज्जन के केवल सुखमय सौम्य दृष्टि पड़ते
सुहृदजनों पर सत्पुरुषों के भीषण बाण नहीं चलते’

घबराहटवश राजन तत्क्षण करते हुए बाण बाधित
बोले ‘ओह! आप मातलि हैं, हे महेन्द्रसारथि! स्वागत’
मातलि से छुटकारा पाकर शीघ्र प्रकट आकर सम्मुख
ऐसा कहने लगा विदूषक नृप से अपने मन का दुःख
‘जिसने मुझे यज्ञ पशु जैसा किया क्रूरता से पीड़ित
इस प्रकार स्वागत से वह है किया जा रहा अभिनन्दित’
मन्द विहॅंसकर मातलि बोले ‘आयुष्मन्! सुनिए संत्रास
जिसके लिए इन्द्र ने मुझको प्रेषित किया आपके पास’
राजन बोले ‘सावधान हूँ’ मातलि किए व्यक्त प्रकरण
कालनेमि के ही वंशज में कुछ हैं दुर्जय राक्षसगण’
नृप बोले ‘हैं यह पहले ही बता चुके नारद श्रद्धेय’
मातलि बोले ‘वह दानवगण है महेन्द्र द्वारा अविजेय
और आप ही, यथा आपके सखा इन्द्र को हुआ प्रतीत,
युद्धभूमि में उन दैत्यों के हो अब संहारक निर्णीत,
रवि निशि के जिस अन्धकार को नष्ट नहीं कर सकता है
उसी निशा के अन्धकार को चन्द्र दूर कर सकता है,
इसी प्रयोजन से शस्त्रों को धारण किए हुए श्रीमान
अभी इन्द्र के रथ पर चढ़कर विजय हेतु करिए प्रस्थान’
राजन बोले ‘मैं महेन्द्र के इस विचार से हूँ उपकृत
किन्तु ब्राह्मण के प्रति क्यों यह किया आपने अनुचित कृत?’
मातलि तत्क्षण बोले नृप से ‘वह भी कहता हूँ निर्मल
किसी बात पर खिन्न आपको मैंने देखा प्रबल विकल,
तत्पश्चात् इसी आशय से राजन को क्रोधित करने
भलीभॉंति से चिन्तन करके यह व्यवहार किया मैंने,

क्योंकि अग्नि तीव्र जलता है ईंधन को उकसाने पर
अपना फन फैला देता है पन्नग छेड़े जाने पर,
प्रायः सकल मनुष्य जगत में स्वाभाविक ही इसी प्रकार
आत्म-पराक्रम को पाते हैं पाकर क्षोभपूर्ण व्यवहार’
तब एकान्त विदूषक को कर व्यक्त किए राजन प्रज्ञा
‘मित्र! अनतिक्रमणीय सर्वथा देवराज की यह आज्ञा,
अतः शीघ्र इस समाचार को उन्हें यथावत अवगत कर
आप अमात्य पिशुन से ऐसा मेरा वचन कहो जाकर,
केवल बुद्धि आपकी ही अब करे प्रजा का परिपालन
प्रत्यंचा पर चढ़ा धनुष यह अन्य कार्य मे है संलग्न’
कहा विदूषक ने यह सुनकर ‘जैसी हो आज्ञा, राजन!’
ऐसा कहकर आज्ञाकारी किया वहॉं से शीघ्र गमन
तदनुसार बोले मातलि यह ‘रथ पर चढ़िए, आयुष्मान्!’
रथ अधिरोहण किया अधिप ने किया सभी ने तब प्रस्थान

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