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दहेज़ एक कुप्रथा

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अग्नि बनी जिस बन्धन की शाकक्षी
बेटी थी किसी की जो अब बहु बनी
लेकर स्वपन नए छोड़ जन्म स्थल
पिया संग चली अनजानो से रिश्ता जोड़ने
छोड़ अपनों का संग चली
बसाने एक दूनियाँ नई किन्तु
कहाँ जान सकी  छोड़ स्वर्ग
वह नर्क चली अपनी खूसी
त्याग दूख का दामन थाम ने
लालच से नाता था नए घर का ना जान सकी

लालच की अग्नि में धधकता
उसका तन भस्म बन बिखरा
हवाओं में  अत्याचारों ने किया
अन्त भावनाओं का अब देह
का भी अन्त हूआ

चारो ओर छाया यह सन्नाटा सवाल करता हैं?
एसी कूप्रथाओ का हिसाब मँगता है





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