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भय का भूत

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चले हाट से लौट गांव की

ओर सेठ श्री सीताराम ।

बीत चली थी साँझः और था

जरा दूर पर उनका गाँव ।

 

निर्जन पथ पर लालाजी ने

जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाया।

उधर अकेला, धुंधला, पीला

चन्दा पश्चिम में उग आया।

 

चलते चलते उठ खड़े हुए

सहसा लालाजी के रॉएँ।

कुछ आहट सी पड़ी कान में

जैसे कोई पीछे आए।

 

बचपन से ही भूतों से

डर खाते थे लाला बेचारे।

चला पसीना छूट बदन से,

लगे दौड़ने भय के मारे।

 

इतने में बजरङ्ग-बली का

नाम याद आया जब उनको

सुन्दर-कांड लगे रटने वे

धैर्य बंधाने को निज मन को।

 

एक बार जब नज़र उन्होंने

पीछे फेरी डरते डरते,

दीख पड़ा कुछ काला काला

भूत उन्हीं का पीछा करते।

 

किसी तरह तब धीरज धर कर

निज प्राणों की आस छोड़ कर

'दुष्ट! कहाँ तू आता है यों?

चिकाए वे गला फाड़ कर।

 

किन्तु भूत वह बड़ा निडर था

खड़ा रहा त्यों ही बन पत्थर।

कहा सेठजी ने मन में तब

दूर भगाऊँ इसे मार कर।

 

पत्थर लेने झुके भूमि पर

किन्तु नज़र थी उसी भूत पर।

देखा-उनके साथ भृत ने भी

ले लिया हाथ में पत्थर।

 

सब कुछ समझ गए, वे बोले '!

यह थी मेरी ही छाया!

भय का भूत बड़ा है सब से;

बड़ी विलक्षण उसकी माया!

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